Thursday, September 24, 2009

ऐसे बनी ग़ज़ल ऐसे गीत बने

प्रीत हुई तो दुख ने घेरा ,दोनों मीत बने ,
सचमुच ऐसे बनी गजल ऐसे ही गीत बने।

कब देखा करते हैं सपने , क्रूर-सत्य ,आघातें ,
कब पक्षी बाजों के भय से नभ पर ना उड़ पाते ,
कब खिलने से फूल कभी करते हैं आनाकानी
जितनी धूप दहकती जंगल उतने ही हरियाते।
घायल सांसें इस आशा से टूट नहीं पातीं
हारी हुई बाजियां शायद इक दिन जीत बनें।

Sunday, September 6, 2009

राष्ट्र-ऋषि नहीं कहलाएंगे शिक्षक


चाणक्य के देश में शिक्षक दुखी है ,अपमानित है और राजनीति का मोहरा है। वह पीर ,बावर्ची और खर है। खर यानी गधा। उस पर कुछ भी लाद दो वह चुपचाप चलता चला जाता है। आजादी के बाद से गरिमा ,मर्यादा और राष्ट्र-निर्माता के छù को ढोते-ढोते वह अपना चेहरा राजनीति के धुंधलके में कहीं खो चुका है। वह जान चुका है कि शिक्षकों के साथ राजनीति प्रतिशोध ले रही है। फिर कोई चाणक्य राजनीति के सिंहासन को अपनी मुट्ठी में न ले ले ,ऐसे प्रशानिक विधान बनाए जा रहे हैं।
आजादी के बाद इस देश में शिक्षकों को राष्ट्रपति बनाया गया। एक राजनैतिक चिंतक ने राष्ट्र को दार्शनिक-राजा द्वारा संचालित किये जाने की बात की थी। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जैसे प्रोफेसर को राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर बैठाकर भारत ने जैसे अपनी राजनैतिक पवित्रता प्रस्तुत की। राष्ट्रपति राधा कृष्णन् के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने से जैसे शिक्षकों और गुरुओं के प्रति राष्ट्र ने अपनी श्रद्धा समर्पित कर दी। लेकिन पंचायती राज्य ,जनभागीदारी और छात्र संघ चुनाव के माध्यम से शिक्षकों को उनकी स्थिति बता दी गई।
शिक्षक राजनीति की तरफ बहुतायत से गए हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी शिक्षक हुए है। भारत के मध्यप्रदेश में दर्शनशास्त्र में स्वर्णपदक प्राप्त मुख्यमंत्री पदस्थ हैं। शिक्षामंत्रालय में भी महाविद्यालयीन शिक्षिका मंत्राणी होकर आई हैं। शिक्षा क्षेत्र में नये-नये प्रयोग वे इन दिनों कर रही है। स्कूल शिक्षा और तकनीकी शिक्षा को भी वही संभाल रही हैं। वे शिक्षकों को देखकर शब्दों की भीगी ओढनियां हवा में उड़ाने लगती हैं कि छींटें शिक्षकों पर पड़ें और वे गदगद हो जाएं। मुख्यमंत्री भी लगातार अपने दार्शनिक स्वर्णपदक को रगड़ रगड़कर शब्दों के जिन्न पैदा कर रहे हैं। एक तरह से शब्दों का मायाजाल रचकर वे प्रदेश को नये स्वप्नलोक में पहुंचा रहे हंै। उनके मूल राजनैतिक दल में मंसूबों और नीयत के खतरे मंडरा रहे हैं। जलती हुई फुलझड़ी के तिनगों की तरह कद्दावर नेता टूटकर बिखर रहे रहे हंै और मुख्यमंत्री अपने दर्शनशास्त्र के तर्कवाक्यों से प्रदेश में नयी क्रांति का शब्दव्यूह रचे जा रहे है। शिक्षकों को लुभाने के लिए उन्होंने एक नया शब्दास्त्र फेंका है। शिक्षिका से मंत्राणी हुई उनकी सहयोगी ने शिक्षक दिवस पर शिक्ष्कांे और गुरुजियों को राष्ट्र-ऋषि की उपाधि से सम्मानित करने की घोषणा की है।
पूर्व मुख्यमंत्री ने अध्यापकों को शिक्षाकर्मी कहकर अपमानित किया था। फलस्वरूप वे निर्वाचन में अप्रत्याशित पराजय से पराभूत होकर आत्मनिर्वासन के महात्याग और संकल्पों की पैन्टिंग बनाने में लगे हैं। पराजित होकर देश की जनता को लुभाने का अंदाज कलयुगी है। कलयुग के प्रारंभ में दो दो राजकुमारों ने चरमोत्कर्ष के क्षणों में सत्ता का त्याग किया था। वह वास्तविक आत्मसाक्षात्कार का वीतराग था। सात्विक जनकल्याण का मार्ग था। उन्हीं सिद्धार्थ और वर्धमान के इस देश में भीषण नरसंहार के बाद आत्मग्लानि से बैरागी बननेवाले राजा अशोक भी दार्शनिक दृष्टांत हैं। दूसरी ओर शिक्षकों द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री ने अपने पहले दौर में उन्हें फिर अध्यापक बनाया और अब राष्ट्र-ऋषि कहकर वह उन्हें सर्वोच्च सम्मान देने का राजनैतिक भ्रम खड़ा कर रहे हैं। दूसरी ओर महाविद्यालयीन शिक्षकों को अभी तक छटवां वेतनमान यह दार्शनिक सरकार घोषित नहीं कर पायी है। देना तो दूर। जबकि केन्द्र सरकार की विश्वविद्यालय अनुदान आयोंग की सिफारिश पर केंन्द्र सरकार नया वेतनमान की अस्सी प्रतिशत अंशदान दे चुकी है। ऐसे दोहरी नीतियों के चलते राष्ट्रऋषि का खिताब शिक्षक कैसे स्वीकार करें ? शिक्षकों ने इस सम्मान को अपना अपमान माना है ,छल समझा है।
क्यों मान रहे हैं शिक्षक राष्ट्र-ऋषि के खिताब को अपना अपमान ? हमारे पूजनीय पुराणों में निरंकुश और दुराचारी राजाओं ने ऋषियों का सतत् अपमान किया। उनके आश्रमों पर हड्डियां और मांस फेंका। उन्हें पकड़कर मारा पीटा। क्यों ? क्योंकि शिक्षक धर्म और नैतिकता पर आधारित एक सामाजिक समाज का निर्माण चाहते थे। असामाजिक तत्वों को इससे खतरा था। आतंक और अत्याचार पर टिका हुआ उनका राज्य ध्वस्त होता था। उन्होंने ऋषियों को जिन्दा भी जलाया। शिक्षक कुराजाओं के राज्य में अपना हश्र देख चुके हैं। पुराणों और पुरखों की दुहाई देने वाले पुरोधाओं के पिछलग्गू राजाओं द्वारा अब कौन ऋषि कहलाना चाहेगा ? क्या ऋषि कहकर तुम भविष्य के तमाम अत्याचारों को विधिक स्वरूप देने की फिराक में हो ? यही पूछ रहा है शिक्षक।
अब सरकार सकते में है। वसिष्ठ से दुर्वासा हुए शिक्षकों को कैसे मनाए। राजनैतिक दांव का वह कौनसा पांसा फेंके कि शिक्षक चारोंखानों चित्त। शिक्षक दिवस को अभी दो दिन बाकी हैं।
ग़ालिब के शब्दों में -
थी हवा गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुरजे ,
देखने हम भी गए थे पै तमाशा न हुआ ।

मित्रों ! आप क्या सोचते हैं ? क्या होगा शिक्षक दिवस पर ? दार्शनिक सरकार शिक्षकों के दर्द को समझेगी या तमाशा होगा ? 03.09.09

Sunday, August 16, 2009

और अब ‘स्वाइन डे’: वाराह जयंती



ज्योतिषियों ने बताया है कि 23 को वराह जयंती है। हम पहले ही वराह से भयभीत हंै। भय से हमारी रक्षा करनेवाले मनोरंजन-उद्योग मुम्बई और पुणे में वराह महाराज ने जो आतंक फैला रखा है, वह क्या किसी से छुपा है ? पुराने लोगों के लिए बम्बई और पूना की याद दिलाने के लिए जैसे यम-मित्र भगवान वराह महाराज के दरबार में कोई सरोजखान की शिष्या माधुरी या ऐश्वर्या की तरह नाच गा रही हैं:‘‘बंबई से गई पूना ,पूना से गई दिल्ली, दिल्ली से गई पटना ; फिर भी ना मिला सजना ।’’ कौन है यार यह सजना ? मिलता क्यों नहीं इससे । तुम्हें ढूंढने के चक्कर में ये स्वाइन-गल्र्स पूरी दुनिया में आतंक मचा रही हैं। मिललो यार , इन्हें भी ठंडक मिले और हमें भी राहत।’’
मेरी समझ में एक चीज़ नहीं आ रही है कि आतंक हमेशा मुम्बई या पूना या दिल्ली या पटना या कलकत्ता को ही क्यों चुनता है। ताजमहल होटल ,संसद आदि से हम परिचित ही हैं। एक दुबली पत्ली लड़की ने कमर मटका कर कहा था ‘ काशी हीले पटना हीले कलकत्ता हील ला , हो लब्कै हमरी जब कमरिया सारी दुनिया हीले ला।’’ हुआ भी वही। ‘वलर््ड वाइड रियलिटी शो’ में उसी बरबटी छाप लड़की ने सचमुच दुनिया को हिला दिया।
मैं तो हिल गया हूं। 23 अगस्त को गणेश चतुर्थी भी है और वराह जयंती भी। एक है विघ्नहरण विनायक , दूसरा है मौत का ऐलान । अब इसका क्या मतलब है । क्या दोनों मित्र बन गए हैं। अमेरिका और पाकस्तान की मि़ता हमने देखी हैं। अब हम देखेंगे कि वराहरोग यानी स्वाइन फ्लू विघ्नविनायक से मिलकर अपनी आतंकवादी गतिविधियों का श्रीगणेश करेंगे। जैसा कि डाक्टर कभी डराते हैं तो कहते हैं ‘‘एडस है , हैपीटाइटस है, चिकुनगुनिया है ....जानलेवा बीमारी है। मुम्बई दिल्ली जैसी जगहों में इतने मर गए तो तुम किस खेत की मूली हो। डरो और हो सके तो डरकर मर जाओ। ’’ ये डाक्टर विघ्नहरण हैं मगर दुश्मनों की बोली बोल रहे हैं। चिकुनगनिया का मच्छर चोरी छुपे डंक मारता है ये खुले आम नश्तर चुभो रहे हैं। जब देखते हैं कम ही लोग मर रहें हैं और झूठे भय की पोल खुल रही है तो फिर झूठी तसल्ली भी देते हैं कि दवा खोज ली गई है। ऐसी तसल्ली हर महामारी की घोषणा के बाद दी जाती है और किसी कम्पनी की कोई दवा बाजार में ऊंचे दामों में बिकने लगती है। क्या करें इस देश की महामारियों का , डाक्टरों और दवाइयों का ? इनका कुछ नहीं हो सकता। हमारा ही कुछ हो सकता है । गायत्री ने ठीक कहा है कि हम सुधर जाएंगे तो संसार अपने आप सुधर जाएगा। तो चलें गणेशजी को मनाएं और वराह देव को भी। त्रत्राहिमाम त्राहिमाम रक्षमाम रक्षमाम पाहिमामा पाहिमाम कहकर। हाथ की लकीर में होगा तो अच्दे परिणाम आएंगे। यह भ्ससग्यवादी और कर्मवादी दोनों रास्ते एक साथ हैं। भागयवादी हाथ की लकीरों पर भरोसा करवाते हैं और कर्मवादी हाथ पर। चलिए गठबंधन के युग में हम गणेश महाराज को भी घ्यायें और शूकर देवता को भी। यही कूटनीति भी कहती है। इस दल में पिता तो उस दल में पुत्र। पंकज-पंक महामार्ग यही है मित्रों। घबराना बिल्कुल मत मैं हूं न। 160809

Friday, August 7, 2009

प्यार से मेरे ज़ख़्म भरते हैं


इश्क़ का आज इम्तेहां तो नहीं
हंसके कहता है कुछ हुआ तो नहीं

बावली आस पूछती सबसे
तुमसे कुछ कहके वो गया तो नहीं

प्यार से मेरे ज़ख़्म भरते हैं
दुखके-काटे की यह दवा तो नहीं

उसकी सूरत किसी ने कब देखी
हममें तुममें ही वो छुपा तो नहीं

सबकी आंखें मुझी पै ठहरी हैं
कौन हूं मैं उन्हें पता तो नहीं

जो किसी शख्स से नहीं मिलता
कहिए ‘ज़ाहिद’ वही खुदा तो नहीं

डॉ. रामार्य

1 दुख के मारे

Wednesday, August 5, 2009

मां



मां - 1

‘‘मम्मी मम्मी मम्मी’’
बजती है जैसे आरती में बांसुरी
जैसे एक लय में पीटे जा रहे हों
दिशाओं के ढोल

वह किचन और बेडरूम में नहीं थी
बाथरूम भी किसी टब सा खाली था
पिछवाड़े के आंगन से भी नहीं आ रही थी
कपड़े पछीटने की आवाजें
बच्चा उसे खाने की पतीली में खुरच रहा था
फर्स पर पैर रगड़ते हुए जैसे
उसे खोद रहा था हड़प्पा की तरह

ओह !
सामने के आंगन में फैली थी
खुली हुई धुली धूप सी मां!
कपड़े फैलाते हुए
तार के इस सिरे से उस सिरे तक
जासौन के फूलों से भरी हुई
डाली सी झूल रही थी मां


मां - 2

अभी अभी आंसू की तरह ढलकी है
मेरे गालों से मां की याद
आंखों के भरपूर दिन में जैसे
हुआ है काला सूर्यग्रहण
हथेलियां तुलसी के पत्तों की सी
अपने आप ढांप गई हैं मेरा चेहरा
लम्हों की बाढ़ में डुबकियां लेता मैं
गंगा नहा रहा हूं

मैं मां की तस्वीर को सीने से लगाए
बरसी मना रहा हूं


मां - 3

मैं उसकी थैली का बिल्कुल आखरी सिक्का
उसकी छाती पर आखरी बार उतरा हुआ दूध

मां बूढ़ी हो गई मुझे बड़ा करते करते
बड़े जो बहुत बड़े थे भाई मेरे
उनकी सैकड़ों समस्याओं में भी मां एक थी
और मैं रास्ते में उभरा हूआ एक पत्थर

उनके पैरों में अक्सर लग जाता था
मां ने मुझे उखड़ने और फेंकने से
न जाने कितनी बार बचाया
मगर मैं मां के कभी काम न आया
जब वह और बूढ़ी हुई तो
मैं बीमार पड़ गया
मां को पिता की पेंशन मिली
बूढ़ी बाड़ी में तुरई के बेल की तरह
वह मां की आंखरी सांस तक फली है

इधर भुगतकर देखा है मैंने अक्सर
अस्थमा के जानलेवा दौरों में
कि मुझसे दूर होकर भी
आकाश के कई नाम-धारी भ्रमों में खोकर भी
मृत मां !
मेरी छाती में सांसों की तरह चली है।
040809
नोट: ऊपर मां के चित्र पर मेरे बेटे ने 12 वीं कक्षा में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।

Monday, August 3, 2009

इतिहास की अथातो अतीत-गाथा



जहां जीवन के हास परिहास की इति होती है ,वहां से इतिहास का आरंभ होता है। हास का अंत ही इतिहास का प्रारंभ बिंदु है। अगर जयशंकर प्रसाद अश्वस्थामा होते तो आज जीवित होते है और कहते:‘‘ जब जीवन से रचनाशीलता भागती है तो उसके पैरों से इतिहास की लकीरें बनती हैं‘‘
हिंदी साहित्य का इतिहास गवाह है कि जब रामचंद्र शुक्ल के पास लिखने लायक नहीं बचा तो वे इतिहास की तरफ बढ़े। अभी हिन्दी का साहित्य शुरू ही हुआ था कि उन्होंने उसका इतिहास लिख डाला। करुणा, लज्जा ,श्रद्धा ,भक्ति ,आदि पर वे लिख चुके थे। हास पर वे कुछ न लिख सके तो हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखकर उन्होंने कुछ हद तक हास का अभाव पूरा किया। कहते तुलसी की थे ,लिखते कबीर की थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने इस हास का लाभ उठाया और शुक्ल जी के अंदर घर कर कर बैठे कबीर को बाहर निकाला और शुक्लजी को और अधिक संत्रास से बचाया।
अपने हास ,परिहास ,उपहास ,उल्हास , आदि हासमूलक प्रवृत्तियों के चुकने पर सभी इतिहास होने या बनने की ओर भागते हैं। वे आत्म-इतिहास की लक्ष्य-भूमि पर आत्मकथा ,जीवनी या अथ आत्मगाथा लिखने की ओर प्रवृत्त होते है। अन्य शब्दों में कहें तो जब आदमी का वत्र्तमान व्यतीत हो जाता है तो वह अतीत की गौवशाली परम्परा का व्यूह रचता है और फिर उसी के जाले में झूले की तरह झूल जाता है। जीवन की इस इतिहासगामी प्रवृत्ति का पता लेखक की रचनाओं में मिलने लगता है। जी चुकने की अधेड़ अवस्था में लेखक की रचनाएं इतिहास ,अतीत ,परम्परा ,संस्कृति ,पुराणकथा इत्यादि की जुगाली करने लगता है। पाठक समझ जाता है कि अगली छलांग में लेखक आत्मकथा पगुरानेवाला है। अगर लेखक की रचनाओं मे ंदम होता है तो पाठक उसकी आत्मकथा को भी झेलने का इंतजार करता है वर्ना सतर्क हो जाता है। फिर लेखक ‘स्वातः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा‘ का स्तवन करता हुआ सुखपूर्वक अपनी ही आत्मकथा का पारायण करता है।
इधर मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं ,नए नए लेखकों में भी यही प्रवृत्ति पनपने लगी है। यश गोयल ‘नए जमाने के आधुनिक कोप भवन‘ की शरूआत में ही अतीत में आव्रजन करते हुए लिखते हैं,‘ रामायण और महाभारत काल से कोपभवन होता आया है।‘ दूसरे पैरामें कहते हैं ,‘ मुगलकाल में राजा अपने महल में कोपभवन बनवाते थे।‘ फिर सूचना देते हैं कि ‘ इक्कीसवीं सदी में आते आते राजनीति में परास्त ,शिकस्त , और कुंठित नेतागण , भूतपूर्व मंत्री , बड़े बड़े आई.ए.एस और आई.पी.एस अधिकारी भी कोपभवन में चले जाते हैं।’
सूर्यकुमार पांडेय ने अपने प्रवचन ‘भौतिक संसार में जागो और त्यागो’ के दूसरे चरण में प्रबोध दिया है कि ‘त्याग हमारी परम्परा का अंग है। श्रीराम ने अपने पिता दशरथ के वचनों की लाज रखने के लिए राजपाट क त्याग किया था।’
अपने इतिहास प्रेम का परिचय जगदीशचंद्र भावसार ‘ दूसरों के पैरों में अपने जूतों की तलाश में’ कहते हैं ,‘नगर के इतिहास में यह पहला मौका था जब तमाम साहित्यकार किसी असाहित्यिक विचार पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे . . . भारतेन्दु युगीन भ्रमरजी ने चिंतन प्रक्रिया समाप्त करते हुए सन्नाटा तोड़ा. . . . हम पूज्य बापू के मार्ग पर चलेंगे. . . ’ इत्यादि।
यशवंत व्यास ने,‘ खिंचे फोटू मेरा तुम्हारा..’ में अपने व्यतीत बचपन के अतीत की तरफ रवीन्द्रनाथ त्यागी की तरह जाते हुूए ओपनिंग इन पंक्तियों से की है,‘बचपन में बड़ा शौक था कि कोई फोटू खींच ले।’ फिर तीसरे पैरा में सीधे रीतिकाल में धावा बोलते हुए कहते हैं ,‘ बिहारी के वक़्त में इसका आविष्कार होता तो विरह में सूखी नायिका का जो चित्र फोटोग्राफर नायक तक पहुंचाता उसमें कुछ दिखाई नहीं देता।’ फिर वे नियमानुसार आधुनिक युग में आते हुए लिखते हैं ,‘एक बार प्रेमचंदजी का फोटू छपा तो उनके पैर में फटा जूता दिखाई दे रहा था।’
देख रहे हैं हम कि इतिहास प्रेम की पलायनवादी प्रवृति इधर पनप रही है। इतिहास प्रेम कभी अंकुरित दिखाई देता है तो कभी पेड़ बनकर खड़ा हो जाता है। जिन लोगों में अभी इतिहासप्रेम का बीज पड़ा ही होता है , वे भी पुरानी लोकोक्ति को शीर्षक बनाकर संस्कृति और परम्परा की ओर अपने रुझान का परिचय देते हैं,’ जैसे अतुल कनक ने ,’मन के जीते जीत. .’ में दूसरे पैरा मे लिखा है ,’जो लोग हमारे खिलाड़ियों को कोस रहे हैं , वे हमारी संस्कृति और परम्परा को नहीं जानते। हम उस अशोक महान के वंशज हैं जिन्होंने अपने पराक्रम में कलिंग युद्ध में विजय पाने के बाद हिंसा को अलविदा कह दिया था।’
आपने सोचा , क्यों हमारे नवांकुर इतिहास की तरफ लौट रहे हैं ? कहते है, प्रलय होनेवाली है। शायद इसीलिए लोग आननफानन में इतिहास की पेटी प्रियदर्षिनी की कालमंजूषा की तरह जमीन में गाड़ देना चाहते हैं कि फिर कभी दुनिया बने और भूकंप आए तो यह इतिहास उभर आए।
अंततः मुझे लगता है कि मैं समीक्षक हुआ जा रहा हूं। प्रसिद्ध और एकमात्र सुखी समीक्षक नामवरसिंह ने भी अंत में डाॅ. रामविलास शर्मा पर आरोप करते हुए लिखा था -‘ और रामविलास भी पलटकर पहुंचे वेदों पर ...‘ परन्तु नामवरसिंहजी भी तो घिसटकर वहीं गए ,रामविलासजी के साथ।
आहा ! रामविलासजी और नामवरजी के नाम लेकर मैं अच्छा फील कर रहा हूं। यानी मेरे मुखर होने की संभावना बढ़ रही है। लगता है मुझे कुछ करना ही पड़ेगा। देखता हूं कुछ करता हूं। नहीं जमा तो इतिहास की तरफ लौट जाऊंगा। 24-250709

Wednesday, July 22, 2009

चांद का मुंह काला


उर्फ सदी का सबसे बड़ा सूर्य ग्रहण
आज 22 जुलाई इक्कीसवीं सदी है। नौवें सावन की पहली अमावस्या की रातवाला दिन। इसी दिन सदी का सबसे बड़ा सूर्यग्रहण है। लेकिन यह सबसे बड़ी घटना घोर बादलों के मोटे पर्दों के पीछे घटेगी। जो देख सकेंगे वो विज्ञान की दृष्टि से भाग्यशाली होंगे किंतु हो सकता है ज्योतिष की दृष्टि से राहू नामका दुष्ट ग्रह उनकी जिंदगी में भी ग्रहण लगाए। ऐसा अंधविश्वास हमारी आस्था का आघार है।
आज मुझे गजानन माधव मुक्तिबोध की एक कविता का शीर्षक याद आ रहा है।‘ चांद का मुंह टेढ़ा‘। ईद के चांद पर शायद प्रगतिशील महाकवि ने यह कविता लिखी थी जो प्रायः मुंह छुपाए रहता है। तभी तो न दिखाई देनेवाले देखनेलायक लोगों को देखकर लोग कहते हैं -‘हुजूर आजकल तो आप ईद का चांद हो गए हो।‘ ईद का चांद साल में दो बार या तीन बार दिखता है।
अमावस में चांद नहीं दिखता। अपनी इस कुण्ठा को वह हमेशा लाइट में रहनेवाले सूरज के सामने आकर अपने अस्तित्व का बोघ कराता है। वह कहना चाहता है कि शीतल यानी ‘कूल‘ लोगों को नेपथ्य में ढकेलने का प्रयास करोगे तो वह रोशनी के केन्द्र के सामने खड़े होकर अपना वर्चस्व सिद्ध कर देगा। सूर्यग्रहण के दिन का चांद उन लोगों का सहज ही प्रतिनिधि हो जाता है जो काम तो बहुत कर रहे हैं और बहुत अच्छा भी कर रहे हैं लेकिन ‘छिछोरी-विज्ञापनबाजी‘ और ‘घटिया-राजनीति‘ के चलते उनका वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो रहा है।
क्षमा करें ,यहां मैं चांद के अवमूल्यन या सूरज के सामंतवाद का विवाद नहीं खड़ा कर रहा हूं। मैं एक द्वंद्वात्मक विचारवाद का मंथन करने का प्रयास कर रहा हूं। हुआ क्या है कि सूरज पर गीत कम बने हैं। चांद की शिफारिशें ज्यादा हुई हैं। चांद सान्ैदर्यवादियों का नायक है। सूरज कामकाजी लोगों का इतिहास पुरुष। कामकाज में स्थिरता और एकनिष्ठा होती है। सौन्दर्यवाद चंचलता को नवोन्मेष की उत्क्रांति बनाकर पेश करता है। सूरज अपने पथ से भटककर कभी किसी के घर में नहीं घुसा। वह अपनी घुरी या खूंटी पर कायम है। वास्तव मंे उसका कोई पथ नहीं है ,जैसा कि विज्ञान कहता है।
उसका पद है ,स्थिर पद। वहां से वह कहीं नहीं जाता। जिसको जरूरत होती है वह उसके आसपास मंडराता है। हनुमान, संपाती और राहू की कथाएं सभी जानते हैं।
कर्म-प्रधान महापुरुषों के साथ जो हुआ वह सूरज के साथ भी हुआ। चांद जब तब उसके मार्ग में खड़ा होकर गीदड़ भभकी देता है तो कभी गिद्ध संपाती उससे जा भिड़ता है। कभी हनुमान खेल खेलमें उसे निगल लेते हैं। नानी दादी बताती है कि राहू उसे बदले की भावना से निगलने की कोशिश तो करता है मगर सूरज को कौन निगल सकता है ? थोड़ी देर में ही जब हलक की हड्डी हो जाता है सूरज ,तो उसे उगलना ही पड़ता है। गंभीर महापुरुषों की भांति सूरज पलटकर उनपर वार नहीं करता । वह अपने काम से काम रखता है।
नानी दादी कहना चाहती हैं कि सूरज की तरह बनो। अपना काम करते चलो दुष्ट विघ्नसंतोषियों की परवाह मत करो।
सूर्यग्रहण के दिन में चांद को देखता हूं तो पाता हूं कि जैसे वह राष्ट्रभाषाचार्य मटुकनाथ है। काशी के कुछ उग्र छात्रों ने उसका मंुह काला कर दिया है और घबराकर सूरज के ज्योतिकुण्ड में कूदकर अपनी कालिख पोंछ लेना चाहता है। आचार्य मटुकनाथ ने अपना मुंह नहीं धोया। अपना कुष्णमुख लेकर वह प्रेम की बारहखड़ी जूली के साथ दुनिया को पढ़ाने निकल पड़े।
चांद ने क्या किया था ? पुराण कहते है कि अपने गुरू वृहस्पति के सूने घर में वे घुस गए थे। स्वर्ग के राजा होने का मद चंद्रदेव को हो गया था। पदके नशें में जैसा कि होता है ,राजनयिकों को कोई रिश्ता नहीं दिखाई देता। तुलसी ने कहा भी है-‘को अस जनमा है जग माही ,पद पाए जाको मद नाहीं।’ परन्तु गुरुमाता तारा ने उसे कालामुंह
लेकर फिरते रहने का श्राप दिया। चांद उसी काले मुंह को उठाए ,मुझे लगता है, आज भी घूम रहा है। 220709

Tuesday, July 21, 2009

सदियों के सब गीत


मेरे रीते अधरों पर फिर ,
क्यों लिख दी तरुणाई ?
हवा देह बन गई
जो मुझतक तुमको छूकर आई .


पहली बार दिखे हैं फिर भी, देखे से लगते हैं.
सपने ये अपनेपन के ये तुम्हें देख जगते हैं.
हर सपने पर धूल जमी थी ,
मैं धंुधला धुंधला था,
उतनी बार निखारा ,
जितनी बार पलक झपकाई .


बाहर से मन कब दिखता है,अंदर आकर देखो.
तुम कितने मनभावन हो ये ,मुझको भाकर देखो.
सदियों के सब गीत ,
तुम्हारे हो जाएंगे पल में ,
पल भर में तुम नाप सकोगे
युग युग की गहराई .


कब चाहा था कुछ भी पाना ,चाहा सब कुछ खोना.
तुमसे मिल जो घिटा मित्र! कुछ अनजाना ,अनहोना.
बंजर के पत्थर में भी जो ,
नवजीवन भर देता ,
वह उच्छंªखल प्रेम,
जिसे हम कहते,रामदुहाई !

Saturday, July 4, 2009

‘ दाता के गुण गाओ -‘

राग-दरबारी उर्फ राग-विरुदावली

भीषण गर्मी की लू भरी शाम में भी हम इवनिंग वाक करने निकले थे। म्यूजिक प्लेअर में कोई गाायक ‘रागदरबारी ‘ में एक बंदिश गा रहा था -‘दाता के गुण गाओ...‘। गुणगान की बंदिश होने के कारण ही शायद ‘रागदरबारी‘ दरबारियों का राग कहलाता है। हालांकि राजदरबार के एक राजपत्रित दरबारी ने शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा-व्यवसाय के सिर पर तबला बजाते हुए तोड़-मरोड़कर थाट-तोड़ी पर पढ़ा जानेवाला ‘रागदरबारी’ गाया ,जो उतना ही लोकप्रिय हुआ ,जितना मर्मस्थल पर हाथ रखकर गानेवाले पापी गायक स्व. माइकल हुए। वे आज ही स्वर्गीय हुए हैं। उन्हें इन पंक्तियों के लेखक ने कभी सुना नहीं और देखा भी नहीं हैै। पर नाम तो नाम होता है। नाम होता है तो फिर देखने सुनने की क्या जरूरत?
वैसे गाए जानेवाले राग- दरबारी में बिला-शक मिठास बहुत है। यह मिठास सुरों की है या गुणगान की यह तो कोई सुरंदाज़ ही बता सकता है। मेरे जैसे साधारण सुननेवाले तो केवल संगीत की मिठास ग्रहण करते हैं। संगीत के सुर-शास्त्र से उनको क्या लेना देना ? जैसे भोजन बहुत बढ़िया है , इसकी तमीज़ हर खानेवाले को होती है लेकिन पाकशास्त्र का ज्ञान तो पकानेवाले को ही होता है। पकाने से याद आया कि शास्त्रीय संगीत को भी पका हुआ ,पक्का संगीत कहते हैं । शायद इसीलिए बहुत से लोग शास्त्रीय संगीत सुनकर कहते हैं कि क्या पका रहा है यार।
रागों के मामले जब उठे हैं तो बताना लाज़िमी है कि एक होता है ‘बादल-राग‘। ‘बादल-राग‘ को मेरे कुछ मित्र साहित्यिक-राग कहते हैं। उनके अनुसार ‘बादल-राग‘ निराला ने लिखा है। पर मैंने सुना है कि मियां तानसेन के पास भी कोई ‘बादल-राग‘ था जिसे गाने से बादल आ जाते थे। मेरे कुछ नान- म्यूजिकल मित्रों को भी यह पता है। इसलिए पसीना पसीना होकर शाम को घूमते हुए एक ने कहा: ‘‘ मर गए यार सड़ी हुई गर्मी और बीस बाइस घंटों की बिजली कटौती के मारे..अब तो कोई जाए और मानसून को मनाए..उसकी सूनी मांग को मान के सिंदूर से सजाए ..कोई कहीं से मियां तानसेन को लाए और वह आकर बादल राग गाए.....और इतना गाए कि पानी गिर जाए...थोड़ा सा तो चैन आए...‘‘
दूसरे मित्र ने कहा:‘‘ बादल राग से केवल बादल घिरेंगे...पानी गिराने के लिए तो किसी को राग-मल्हार गाना पड़ेगा....सुना है तानसेन का प्रतिद्वंद्वी बैजू बावरा था जो मजे से राग मल्हार में गाता था ..तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा.....अगर कहीं वो मिल जाए तो हमारे गांव में गंगा जमुना बह जाएं.. ‘‘
मैंने उकताकर गर्दन पर बहनेवाले पसीने को पोंछकर कहाः‘‘ यार एक बात बताओ.. क्या तुम्हीं लोगों ने ठेका ले लिया है गंगा जमुना बहाने का....‘‘
‘‘ तो तुम्हीं ले लो ...हम को तो बरसात चाहिए जिससे कि बाइस तेइस घंटों की अंधेरी हवा विहीन रातों से छुटकारा मिल सके...‘‘ बात उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं थी। हमारे गांव में बिजली की अनिश्चितकालीन कटौती बाइस तेइस घंटे ही की होती है। मैंने बात बदलने के लिए कहा ‘ बिजली की समस्या के लिए भी एक राग है......दीपक राग। सुना है कोई मियां इसे गाते थे तो दीपक जल उठते थेे।‘
‘दीपक तो जल जाएंगे पर उससे जो गर्मी बढ़ेगी तो हम कहां जाएंगे... पहले तो राग मल्हार वाले को बुलवाओ...दीपक की बाद में सोचेंगे।‘ मित्र ने चिढ़कर कहा । इससे तत्काल लाभ यह हुआ कि हमारा खटराग बंद हो गया। दाता के गुण गानेवाले राग-दरबारी की भी कोई ध्वनि अब हमारे कानों में नहीं पड़ रही थी। मगर यह शांति कुछ देर की थी। कहीं दूर से भजनों के गाए जाने की आवाज आ रही थी। अब यह कौन सा राग है? हम तीनों ने एक साथ एक दूसरे का देखा।
‘‘मेरे ख्याल से यह कल्याण राग है...क्योंकि भजन का संबंध कल्याण से होता है...‘‘ मैंने कहा।
‘‘ कल्याण से तो ठीक है ,पर किसके कल्याण से ?‘‘ मित्र ने पूछा।
‘‘ सबके कल्याण से ..‘‘ मैंने कहा । इस पर मित्र ने कहा:‘‘ तुम इतने यकीन से कैसे कह सकते हो कि भजन का संबंध सबके कल्याण से होता है... भजन गानेवालों को तुम जानते हो ?‘‘मित्र ने पूछा।
‘‘ इसमें जानने की क्या जरूरत ...भजन तो ईश्वर का गुणगान है ,प्रार्थना है...सबके साथ मिलकर गाई जा रही है इसलिए जाहिरन सबके हित और कल्याण के लिए गाई जा रही है...‘‘ मैंने तर्क रखा। मित्र ने मेरे तर्कों पर झाड़ू मारते हुए कहा ‘‘ लीपापोती मत करो...तुम नहीं जानते ..भजन की नीति...? यह वही लोग है जो मंदिरों में भजन करते हैं और फिर शराफत की आड़ में बेईमानियां भी करते हंै।‘‘
‘‘ तुम तो राग भीम पलासी अलापने लगे...भीम की तरह भजनगीरों को पटखनी देने लगे ..बात क्या है ?‘‘
‘‘ मै इस समय राग में हूं..सभी पर मुझे आज राग आ रहा है....‘‘
‘‘ लेकिन तुम राग कहां कर रहे हो ,तुम तो गुस्सा कर रहे हो ...?‘‘
‘‘ मराठी में गुस्सा को ही राग कहते हैं...‘‘
‘‘ मगर गुस्सा किस बात का... मराठों की मायानगरी मुम्बई में तो झमाझम बारिश हो रही है.... ‘‘
‘‘ इसी बात का तो गुस्सा है ...आज अगर मैं मुम्बई में होता तो बारिश में भीग रहा होता । राग बिहाग और मल्हार छेड़ रहा होता..यहां तो तपिश के मारे जान निकली जा रही है..चारों तरफ राग रुदाली की बेसुरी ताने खिंची हुई है.... राग नहीं होगा मुझे ?‘‘
गर्मी के जिस असर के बारे में मैं सुना करता था वह मित्र पर शायद हो गया था। मैं चुप रहा ।लेकिन तभी एक ऐलान हमारे कानों में सुनाई पड़ा:‘‘ नागरिक बंधुओं ! मानसून के बिलंब के चलते और नदी के जल संग्रहण केन्द्र में पानी के अभाव में नगर पालिका द्वारा प्रदान किया जाने वाला पानी अब एक दिन की आड़ में केवल एक समय ही किया जाएगा। सम्माननीय नागरिकों को होने वाली असुविधा के लिए हमें खेद है।‘‘
ऐलान सुनकर मित्र भड़क उठे। कसमसाकर बोले:‘‘ ये देखो मक्कारी राग....चुनाव नजदीक है ...शहर का बिजली और पानी के लिए तरसाकर नेताओं के महलों तक जाने के लिए सड़कों और नालियों का काम जोर और शोर से कर रहे हैं... सारा पानी वहां झोंक रहे हैं ....कांक्रीट की सड़कें और नालियां बनाने में ...और नागरिको को उल्लू समझते हुए खेद व्यक्त कर रहे हैं...‘‘
‘‘ नई.. लेकिन मौसम विभाग ने भी तो अकाल और सूखा की भयानक संभावना व्यक्त की है...‘‘
‘‘ कब व्यक्त की है ? अब जब पानी नहीं गिर रहा है.... पहले क्यों नहीं की जब पानी को सुरक्षित किया जा सकता था और उसके लिए योजनाएं बनाई जा सकती थी... सड़कों के लिए अनुमति रोकी जा सकती थी... बेवकूफ समझते हैं जनता को ?... ये सब साले सरकारी खटराग हैं... इनमें सिर्फ झूठ और फरेब के बादल घिरते हैं और हरे भरे जंगल धू धू करते हैं...‘‘
मैं समझ गया कि मित्र के दिल में जो तांडव-राग मचल रहा है वह मेरे किए शांत नहीं होगा । इसलिए मौका मिलते ही मैंने कहा: ‘‘ आज तो बहुत देर घूम लिए ..घर में लोग चिंता कर रहे होंगे...चलें ?‘‘ और मित्र के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मैं घर की ओर चल पड़ा।


27.06.09

Wednesday, June 24, 2009

आग लगी आकाश में

और
बिन पानी सब सून

आकाश में सूखे की संभावनाएं ,बेपानी बादल और आग उगलता सूरज ,आखिर किस असंतोष को प्रदर्शित कर रहे हैं। बिजली बेमियादी और बेमुद्दत हो गई है। दिन में केवल तीन चार घंटे और वह भी किश्तों में । कभी एक घंटे, कभी पंद्रह मिनट ,कभी दो मिनट भी नहीं। इन्वर्टर पूरी खुराक़ के अभाव में चीखने लगे हैं। उनकी प्लेटों पर ‘खट’ जमने लगी है। ‘खट’ को थोड़ी देर के लिए खटास ही मान लें। बिजली का काम करनेवाला कम पढ़ालिखा लड़का उसका केमिकल नाम नहीं जानता । हम जानते हैं तो क्या कर लेंगे। पानी बदलकर एसिड डालकर तो उसे ही धोना है। हम उसी पर निर्भर हैं।
नगरपालिका ने नोटिस पर दस्तखत ले लिए हैं कि अब कटौती को बढ़ाकर एक दिन के आड़ में पानी देंगे। पानी का भंडारण भी सूख रहा है। पानी ही नहीं हैं।
आसमान सूना ,जमीन सूखी ,बिजली गायब ..... हम जो अब तक आदी हो गए थे बिजली के बहुआयामी उपयोगों के और प्राकृतिक आबोहवा से दूर हो गए थे , प्रकृति की तमाम सहजावस्था के नज़दीक आ गए हैं। टीवी-कम्प्यूटर ने हमें बांध लिया था और अपनों के साथ दो घड़ी बैठ पाने के लिए हमारे पास समय नही था । सूखे ने जैसे उन कंुभलाए हुए संबंधों और भावनाओं पर पानी सींच दिया है। अब हम पंखे डुलाते हुए एक साथ बैठने लगे हैं और कोशिश करने लगे हैं कि हम जब पंखा करें तो पास या आसपास बैठें अपनों को ज्यादा हवा लगे।
कबीर ने जो कहा था , उसे अब समझे :-
आग लगी आकास में ,गिर गिर पड़ें अंगार ।
कबीर जल कंचन भया , कांच भया संसार।।
और रहीम ने भी एकदम सही चेताया था:-
रहिमन पानी राखिए ,बिन पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरे ,मोती मानुस चून।।
- मैं इसेे यूं समझता हूं कि पानी जाने के बाद ही हम अपनी गफलतों से उबर पाते हैं। पहले तो होश ही नहीं रहता कि पानी की रक्षा कैसे और क्यों करें !

मित्रों ! एक निवेदन बिजली के अभाव में अब मिलना अनिश्चित है। कृपया भूल न जाएं।
- डाॅ. रा. रामकुमार
24.06.09 निवेदन

Tuesday, June 9, 2009

इसका मतलब है कि .....

होश आया तो मुझे नींद भी बहुत आई ,
इसका मतलब है कि बेहोशी में मैं जाग रहा था।260509

मैं हवा में था मगर फूल थे निगाहों में ।
अनगिनत तारे खिले दूब भरी राहों में ।
लाख सपने थे बिना देह मेरी बांहों में ।
मैं कई रूप लिए आसमां में बिखरा था ,
और धरती पै मेरा साया मुझसे भाग रहा था ।
इसका मतलब है कि.........

सैंकड़ों चेहरों की थी भीड़, चाहतें गुम थीं।
अज़नबी दुख चले आते थे, राहतें गुम थीं।
मेरे अपनों के थे खंढर इमारतें गुम थीं।
थे कटे हाथ ही जो छान रहे थे मलबे ,
दब गए थे कहीं उत्सव कि जिनमें फाग रहा था।
इसका मतलब है कि .........

भाग्य ,रेखाओं में होता तो निकलकर आता।
दिल हथेली को चीरकर फिज़ा में भर जाता।
मन की रेखा से प्रेम बनके लहर झर जाता ।
सूर्य ,रेखाओं में छुपकर भी बुझा-सा क्यों है?
मेरी मासूम हथेली में कहां दाग़ रहा था ? 020609
इसका मतलब हे कि .........

मुझको ये खेल दिखाना था तो दिल बनाया क्यों ?
मुझको रखना था अकेला तो यहां लाया क्यों ?
मेरी दुनिया ये नहीं थी तो यहां आया क्यों ?
सबकी ख्वाहिश बनूं मैं ,सबके दिलों तक पहुंचूं ,
मैं कभी इससे भी ज्यादा कहां कुछ मांग रहा था ?260509
इसका मतलब है कि ...................

Saturday, June 6, 2009

सेंधमारी,तिजौरी और सुरक्षा के आदिम सवाल

एक समाचार पढ़ता हूं कि एक युवा विधवा रजिया ने अपने और अपनी बच्ची के सुरक्षित भविष्य के मद्देनज़र एक सजातीय युवक से निकाह या निबाह कर लिया। समय ने उसकी गूंगी बच्ची को इस लायक बना दिया कि जाने या अनजाने उसे उल्टियां होने लगे। रजिया की बेटी के साथ यही हुआ। मां को पता नहीं चला और हमेशा की तरह पड़ोसियों ने इस घटना को न केवल देखा बल्कि जैसा कि होता है वे इस उल्टी की तह तक गए। इशारे में खुद रजिया की गूंगी लड़की ने बताया कि वह जो बापनुमा सुरक्षाकवच उसकी मां ने अपने और उसके लिए पहना था ,वही उन उलटियों का जिम्मेदार है। कानूनन वह गिरफ़्तार कर लिया गया।
दूसरा समाचार ..... बारह साल बाद कानून ने उन चार आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया जिन्हें एक औरत की रपट पर बलात्कारी माना गया था और जेल में डाल दिया गया था। लगातार कानूनी लड़ाई लड़ते हुए अंततः चारों आरोपी यह सिद्ध करने में सफल हुए कि वह औरत जिस्मफरोश है और पुलिस ने उसे ढाल बनाकर उन चारों के खिलाफ़ जाल बिछाया था। पुलिस का काम सुरक्षित करना है, यह हमारा संविधान कहता है। मगर क्या वज़ह कि हमारा व्यावहारिक समाज पुलिस पर सुरक्षा के लिए निर्भर नहीं रहना चाहता ?
बहरहाल व्यापार ,खेल ,राजनीति से सनी हुई दुनिया के लिए इन दो बेहद तीसरे दर्जे़ के समाचारों ने मुझे अनायास फिर सोचने को मज़बूर कर दिया है। ये समाचार अनैतिकता और हमारी सुरक्षाव्यवस्था के प्रति न चाहते हुए भी कुछ अनुत्तरित सवालों के बेजान बिजूके खड़े करने की ज़िद करते हैं। जबकि हम सब अब जान चुके हैं कि दुनिया नैतिकता को बहुत ही बेकार का पास-टाइम और भटकाव मान चुकी है। बल्कि यों कहें कि नैतिकता की बात करनेवाले व्यक्ति अब या तो मानसिक रूप से अविकसित समझे जाने लगे हैं या उन्हें इस तरस के साथ देखा जाता है जैसे वे ’स्पेशल’ बच्चे हों और उन्हें इलाज़ की ज़रूरत हो। मेरे भुगतने में यह अनुभव आ चुका है। मैं एक प्रशासनिक अधिकारी के पास किसी काम से गया था। मेरे हाथ में उस वक़्त शोध के सिलसिले में संत-साहित्य से संबंधित पुस्तक थी। प्रशासनिक अधिकारी उस पुस्तक को देखकर तनाव में आ गए और बोले:‘‘ यह किस किसम की किताबंे आप पढ़ा करते हैं।‘‘ मैंने कह दिया कि मैं एक प्राध्यापक हूं और साहित्य में इस प्रकार की किताबें पढ़नी पड़ती हैं। इसे अपराध न समझा जाए। परन्तु मैं अंदर ही अंदर बुरी तरह चैंका था कि आखिर एक प्रशासनिक अधिकारी को संत साहित्य से क्या आपत्ति ! यानी व्यवस्था से जुड़ा व्यक्ति नीति से परहेज करता है! वह नैतिक रहने या बनने में असुरक्षा मससूस करता है ?
सुरक्षित जीने की चाहत उन्हें भी होती है जो अपनी ज़िन्दगी की सुखोपासना में दूसरों की ज़िन्दगी से खेलने के मज़े लेते हैं और दूसरों के लिए हमेशा असुरक्षा के ख़तरे पैदा करते रहते हैं। आत्मसुख के संसार मंे घूमते हुए अपने लिए मज़े की सेंध मारनेवाले ये चेहरे कोई भी हो सकते हैं। ज़रूरी नहीं है कि ये कोई अपरिचित हांे , विक्षिप्त हांे अथवा प्रतिशोध से भरा हुआ कोई नकारात्मक सोचवाला व्यक्ति हो। कतई ज़रूरी नहीं कि अनिवार्य रूप से वह कोई आदतन अपराधी या स्वाभाविक शत्रु हो। वह कौन होगा ? क्यों होगा ? और कब होगा ? इसका कोई पूर्व आकलन सामान्य तौर पर नहीं ही है। जब घटनाएं घटती हैं तब ये चेहरे सामने आते हैं। कई बार तो इन चेहरों को ढूंढने में इतना वक़्त लग जाता है कि इसी तर्ज़ पर कई और घटनाएं घट चुकती हंै। निघानी जैसे जघन्य और नृशंस कृत्यों की अनेक प्रतिलिपियां मासूम बच्चों के माता-पिताओं के जे़हन पर सैकड़ों सुनामियांे की शक्ल में मरोड़ें खा रही हैं। निघानी जैसे विकृत मानसिकताओं के व्यक्तियों के शरीरों को खत्म भी कर दिया जाए तो भी वह कृत्य रक्तबीजों की हजारों संततियों की शक्ल में फिर किसी और मासूमियत कोअपना शिकार बना लेती है। तो फिर हमारी कुलीन ,संभ्रांत और सभ्य राष्ट्रीयता के पास कानून पर विश्वास करने के सिवा और बचता ही क्या है? हां एक तथाकथित संयम है जो अंततः सारी घटना को एक घुलनशील नियति के रूप स्वीकार कर लेता है और निराशा एक शालीन नागरिक का जीवन जीने लगती है। ऐसा नागरिक यथासंभव संवेदनशील अभिव्यक्ति-जीवियों से कटने और टूटने लगता है। इसलिए प्रेमचंद जैसे लेखक को मरने के बाद भी क़फ़न कहानी की बुधिया की तरह अपने ही घीसू और माधो को तरसना पड़ता है।
इन बातों के पीछे मेरा कतई मकसद यह नहीं है कि हम नैतिकता का पुनर्मूल्यांकन करें या उसकी पुनसर््थापना के सवाल खड़े करें। मैं खुद इस बात से हैरान हूं कि इतने प्रगतिशील समाज में रहते हुए और विकास के इतने पड़ावों से देश को गुज़रे हुए देखकर भी मैं नैतिकता के खिलाफ़ घटी हुई घटनाओं से विचलित क्यों हो जाता हूं ? मैं अभी तक अभ्यस्त क्यों नहीं हो पाया हूं कि इन घटनाओं को नज़र अंदाज़ कर सकूं। दरअसल स्पष्ट रूप से मुझे अनैतिकता के प्रति लापरवाह होने की शिक्षा किसी ने नहीं दी। वात्स्यायन के कामसूत्र और रजनीश के समाधि-सूत्रों की लोकप्रियता के बावजूद मुुझे हमेशा यही लगता रहा है कि वेद, गीता, रामायण, और सैंकड़ों संतों के इस देश में कोई कैसे नीतिशास्त्र के विरुद्ध जा सकता है ? संबंधों की लक्ष्मण रेखाओं को लांघनेवाले जीव आते कहां से हैं ? या वह परिस्थितियां बनती क्यों हैं जब व्यक्ति इन्हंे लांघ जाए या लांघने के लिए मज़बूर हो जाए। हमने सुरक्षा के लिए आविष्कार की सैकड़ों लड़ाइयां लड़ी हैं। कमजोर मिट्टी की दीवारों में सेंध पड़ती थी तो हम कंक्रीट तक पहुंचे। दरवाज़ों पर तालों का ईजाद किया गया। टीन की पेटियां लोहे की मज़बूत तिज़ौरियों में तब्दील की गईं। पर लूट फिर भी जारी है। घर के नौकर, चैकीदार,निजी सुरक्षकर्मी...प्रणाम के बहाने झुका कोई नाथूराम या शुभ्रा.......हमारी सुरक्षा पर सवाल बन कर खड़े हैं। अंधेरे बंद कमरों में कभी कभी सुरक्षित होने का भ्रम होता है और उजालों में ट्विन-टावर से गुज़रते हुए विमान नाश्ते की मेज़ों पर आतंक परोस जाते हैं। क्या हमेशा विकास की शर्त सुरक्षाकवचों की सेंधमारी की इबारत से शुरू होती है ? अक्सर ऐसा क्यों होता है कि जो चीज़ें बदल नहीं सकती, उसी पर ज्यादा बहस होती है ओर जो हो सकता है उसे नज़र अंदाज किया जाता है। हम जिओ और जीने दो को संभव बना सकते है। जरूरत समाज की हर चीज़ को सुरक्षित करने की है। दि.050609
डाॅ. रा. रामकुमार

Tuesday, May 12, 2009

चिकनी खाल के रसीले रहस्य

नींऊंड़ा ,नींमुड़ा ,नींबुड़ा:
चिकनी खाल के रसीले रहस्य

मेरे ख्याल से प्रातः-भ्रमण का स्वास्थ्य से चाहे जितना संबंध हो , मस्तिष्क से कहीं ज्यादा है। ताज़ा हवा में ताज़ा विचारों के साथ घूमते हुए ठंडी हवा कितना कुछ दे जाती है ,उसका पता सुबह-सुबह टहलकर घर लौटे हुए आदमी के चेहरे और उत्साह से चल जाता है।
मैं भी उस दिन अपने चेहरे पर उत्साह और विचारों का नये पतेवाला लिफ़ाफ़ा बनकर लौटा था। पत्नी बगिया में पानी दे रही थी । पत्नी को घेरकर मीठी-नीम , पोदीना ,मोंगरे , भटे , इकट्ठी दुृकट्ठी पत्तियोंवाला नगोड़ा नींबुड़ा यानी नीबू वगैरह खड़े थे। नीबू में भरपूर निंबोड़ियां झूल रही थी। ऐसे लग रह था जैसे पत्नी के माथे पर पसीने की चमकदार बूंदों से हंस-हंसकर कुछ बतिया रही हों। मैं कुतूहल के साथ बगिया में घुस गया और ठीक निंबुड़ियों की झूलती डाली के पास खड़ा हो गया । पत्नी ने चेतावनी दी:‘‘ सम्हलकर , नींबू में कांटे होते हैं।‘‘
मैं ठिठक गया। रसीली वनस्पतियों में कांटे ? मैं सोचने लगा कि और कौन कौन से फलदार पेड़ हैं जिनमें कांटे होते हैं! ऐसे फल जो मुझे पसंद है...और ऐसे फूल जो फूलों के राजा हैं.. और ऐसी सब्जियां जिनकी रोज रसोई पकती है और उन सबमें कांटे या कंटेदार रोयंे होते हैं। मुझे सोचता देख पत्नी ने टोका:‘‘ होने लगी कविता ,पकने लगा साहित्य.?’’
मैंने हंसकर कहा:‘‘ पकेगा जो भी ,तुम्हारे निंबुड़े के रस को निचोड़े बिना उनमें स्वाद तो आने से रहा ....लाओ दो एक निंबुड़ियां तोड़ लूं।’’
’’ नहीं ...अभी कच्ची हैं... रस नहीं पड़ा है.. ’’ पत्नी ने वर्जना की।
’’ तुम्हें कैसे पता कि रस नहीं हैं... आई मीन ..कैसे पता चलता है कि रस है या नहीं है ?’’ मैंने जिज्ञासा की।
पत्नी ने कहा:‘‘ नींबू की खाल देखो.. अभी खुरदुरी है... जब यह चिकनी होने लगे तो समझना चाहिए उसमें रस पड़ रहा है।’’
’’ अच्छा ! वनस्पतियां भी तभी रसीली होती हैं जब उनकी खाल चिकनी होती है ?’’ मेरे मुंह से निकल तो गया पर मैं सच कहता हूं यह अकस्मात् ,स्वभाववशात् हो गया था ,ऐसा कोई इरादा नहीं था । परन्तु पत्नी बिफर पड़ी:‘‘ सुबह सुबह तो दिमाग़ दुरुस्त रखा करो....कुछ भी कह जाते हो...जाओ चेंज करो , मैं चाय बनाकर लाती हूं।’’
मैंने सकपकाकर निंबुड़े की झूमती हुई डालियों को देखा और दिमाग में झूलते हुए विचारों को संभाले हुए कमरे में चला आया। यह भी अजीब संयोग था कि उसी दिन अखबार में पचपन-प्लस स्वप्नसंुदरी और चिरयौवना तारिका का संसदीय बयान छपा था:‘‘ मैं बिहार जाकर देखना चाहती हूं कि सड़कें मेरे गालों की तरह चिकनी हुई हैं या नहीं।’’
कहने की जरूरत नहीं है कि बुढ़ज्ञपे मंे भी ताज़गी की चमक से भरे ललिआए गालोंवाले एक भूतपूर्व बिहारी मुख्यमंत्री ने केन्द्रीयमंत्री के रूप में कभी कहा था कि वे बिहार की सड़को को स्वप्नसुंदरी के गालों की तरह चिकना बनाएंगे।’’ यह भी चिकनी परत वालों की रसीली चुटकी थी। तारिका सांसद का बयान भी रसीला था। पत्नी सही कहती है कि जब खाल चिकनी होती है तो उसमें रस पड़ने लगता है। दोनों राजनीति-जीवियों ने यह सिद्ध कर दिया है। हालांकि राजनीति कांटे बोने ,उगाने , बांटने और हटाने की जगह है , इसे सब जानते हैं। यह भी सबको पता है कि तारिकाओं के जीवन में पग-पगपर कांटे होते हैं। यही कांटें शायद उनके जीवन को रसीला बनाते हैं।
मनुष्य जिस प्रकृति का अंग वह प्रकृति अद्भुत है। कांटे हों या फूल...उनसे हमारे संघर्षों को बल मिलता है। इसीलिए हमारे आदर्शों में पुष्पवावटिका भी है और कंटीला वनवास भी। कांटेदार खट्टी मीठी बेरों से हमारे यहां आतिथ्य गौरवांवित होता है तो जंगली संजीवनी से पुनर्जीवन मिलता है। प्रकृति में बसंत भी होते हैं और पतझर भी। यह अद्भुत संयोग है कि बसंत में फूल खिलते हैं तो पेड़ नंगे हो जाते हैं।पत्ते झड़ जाते है। गर्मी जैसे जैसे तेज होती है तो पेड़ों पर भरपूर हरियाली छा जाती है। यानी कुदरत का कोई भी काम इकतरफा नहीं है....धूप है तो छांव भी है। कांटे हैं तो फूलों का राजा गुलाब भी है ,खुश्बू है। कांटे हैं तो नींबुड़ा में रस है ,चटखार है। इतना कुछ देने के बाद भी प्रकृति जीवंत कितनी है ? कांटे आते है तो खिली पड़ती है। फूलती है तो फलती भी है। विनम्र ऐसी कि फलने लगती है तो झुकी पड़ती है। जिन पेड़ों पर न फल हैं ,न फूल वे तने खड़े हैं। सागौन और सरई प्रशासनिक अधिकारी हैं ...उन्हें झुकाना जुर्म हैं ,उन्हें काटना जुूर्म। विलाश के मामलों में उनकी कटाई छंटाई सरकारी इजाजत के साथ की जा सकती है। फलदार वृक्ष तो आम आदमी है , जमीन से जुड़ा आदमी , सरल और सीधा आदमी... आम और अमरूद और सेव और संतरें और नीबू.... फले जा रहे हैं और झुके जा रहे हैं..... 2006 की एक ग़ज़ल का एक शेर ज़हन में उभरता है , जसे कुछ ऐसा है-
फलने लगता है तो झुक जाता है ,
पेड़ गर आदमी होता तो अकड़ जाता।
कुदरत और आदमी यहीं अलग हो जाते हैं। कुदरत झुकती है ,आदमी अकड़ता है। यूं तो आदमी प्रकृति का एक हिस्सा है। प्रकृति के अंदर आदमी है , आदमी के अंदर प्रकुति क्यों नहीं आती ?
नहीं नहीं ,आती तो है।प्रकृति कवियों के अंदर अनायास आती है। मेरे एक परिचित वयोवृद्ध कवि थे...स्व. केशव पांडे। धर्मयुग के कवि। इस्पात नगरी में एक कोमल आदमी... हंसी से भरा हुआ उनका चेहरा...। इस्पात भवन में हम प्रायः रोज मिलते थे। उन्हें हृदयाघात हो गया। पता नहीं जिनके हृदय कोमल होते हैं , प्रायः उन्हें हृदयाघात क्यों होता है ? केशव पांडे के कोमल हृदय में प्रकुति बसी हुई थी । एक दिन लंच में नीबू निचोड़ते हुए मुझे ऐ कविता सुनाई थी....
मित्र !
ये अफसर , ये नेता
हमें नीबू सा निचोड़ लेते हैं
दोपहर के भेजन में ।
मैं बस अवाक्। न आह भर सका ,न वाह कर सका। वे अनुभवी थे। कविता के प्रभाव को जानते थे । मुस्कुराकर बोले:‘‘ इसी में तो मजा है। मित्र , हम अपने को निचोड़कर अपना लंच स्वादिस्ट बनाते हैं ...चलो लंच करें।’’
तबसे मैं देख रहा हूं कि रोज प्रकृति कवियों के अंदर घुसती है और कविता के गवाक्षों से झांकती है। आलेखांे में प्रकृति अपनी द्वंद्वात्मकता , अपना द्वैतवाद उलीच रही है..संभावनाओं को भी , विडम्बनाओं को भी। गीतों में ग़ज़लों में दर्द कराह रहे हैं तो जिन्दगी गुनगुना रही है। कहानियों में करुणा रिस रही है तो आनंद भी झर रहा है।नगमों में नजाकतें इठला रही हैं तो रसीली चटपटी नींबुड़ियां झूम रही है।
नहीं , नींबू मेरे ज़हन से अभी उतरा नहीं है। उसका दिमाग मे चढ़ गया है और वह मेरे सर पर चढ़ गया है। नशा बनकर। जबकि यही सरचढ़ा नींबू कइयों के नशे उतार देता है। यही नींबुड़ा स्वाद को बढ़ाता है तो घमंड को और मद को उतार देता है। गर्मी चढ़ी हो तो नींबू का पानी उतार दे। यह नींबुड़ा जीरा और संेधा नमक के साथ गठबंधनकर सर पर चढ़कर बेहाल कर देने वाली गैस को मिनटों में उतार देता है।
उतारने को तो नींबू भूत भी उतारता है ,और दीठ भी ,नजर भी। सर पर चढ़ी भावों की देवी भी नींबू का उतारा मांगती है। नई खरीदी हुई गाड़ी के पहिए के नीचे नींबू को कुचल दो तो गाड़ी की बलाएं उतर जाती हैं। अपने अस्तित्व को , अपने को निचोड़कर केवल नींबू यानी प्यार में पुकारा गया नींबूड़ा दूसरों की बलाएं उतारता है। यही नहीं भव्य भवनों , दूकानों के सामने मिर्ची के साथ लटके हुए नींबू को देखो...कितने मजे से उनकी चैकसी में पैबस्त हैं ,तैनात हैं।
नींबू के कारनामों और करामातों की फेहरिस्त लम्बी है। वह स्वस्थों को स्वस्थ रखता है तो बीमारों को स्वस्थ करता है। खाली पेट सुबह-सुबह लेने से चर्बी गलने लगती है ,मोटापा छंटता है , रक्त-संसचार सुधरता है , रक्त-चाप सामान्य होता है।
कुलमिलाकर नींबू एक जीवित कविता है ,जिसमें रस है और ऊर्जा भी। नींबू के एक गिलास पानी से मैंने कविता को नहाकर बाहर निकलते देखा है। मेरे मित्र की पत्नी ने बिस्तर पर पड़े हुए पति को नींबू पानी का गिलास थमाते हुए ताना मारा था:‘‘ दिन चढ़े तक ऐसे पड़े हैं जैसे रात मे चढ़ाकर सोये हों।’’
मित्र ने इत्मीनान से नींबू-पानी पिया और पत्नी का हाथ पकड़कर यह शेर सुनाया:
दांव खेला ही नहीं है , तो चुकारा क्यों हो ?
रात जब पी ही नहीं है , तो उतारा क्यों हो ?

चाय पीकर मैं चुपचाप नींबू के पौधे के पास खड़ा हो गया हूं। मैं उसकी बलाएं उतार रहा हूं और अपने सर ले रहा हूं। मुझे याद है कि लगातार चार सालों तक नींबू पर न फूल खिले , न फल आए। तब किसी ने टोटका दिया था कि इतवार बुधवार नींबू के पास खड़े होकर घुड़को कि इस बंझेड़े को काट डालूंगा..क्योंकि यह फलता फूलता ही नहीं। ऐसा एक दो बार कहने से वह फलेगा भी और फूलेगा भी। मैंने इस टोटके को आजमाकर देखने में कोई बुराई नहीं समझी ,क्योंकि इसमें अपना फायदा था। सचमुच नींबू उस घुड़की के बाद फूला भी और देखो कैसे झमाझम फल रहा है। किंतु , किसी कार्यालय में काम अटका हो ,कोई कोशिश फलीभूत न हो रही हो और ऐसे धमकाओ कि काट डालूंगा अगर इस बार काम नहीं हुआ तो। क्या काम फलीभूत होगा ? उलटे मुसीबत खड़ी हो जाएगी। रासुका लगेगा सो अलग। यह तो नींबू है जिसे धमकाने का बुरा नहीं लगता। जरूरतमंदांे के दर्द को वह समझता है।
आखिर मैंने ग्लानि और कृतज्ञता से कांटों की परवाह किये बिना ,नींबू के फलदार वृक्ष की टहनी को चूमा और कहा:‘‘ झूठी मूठी धमकी को दिल से मत लगाना यार ,जब निचोड़ूं तो निचुड़ जाना ।’’

डाॅ. रामार्य

Thursday, May 7, 2009

जूतों की महायात्रा: शास्त्रयुग से शस्त्रयुग तक

रामायणकाल मे शास्त्र पोषित सम्राट् राम की कहानी में एक युगान्तर तब घटित हुआ जब अयोध्या के राजा भरत ने आग्रह किया था कि आपका अधिकार है आप राजा बनें। शास्त्रीय नैतिकता और मर्यादा को कठोर व्यावहारिकता में बदल देनेवाले राम ने नियति से प्राप्त वनवास को वरेण्य मानकर भरत का आग्रह अस्वीकृत कर दिया था। तब भरत ने राम कीह खड़ाऊ मांग ली और सर पर रख्कर लौट आए। राजसिंहासन पर उन खड़ाउओं को स्थापित कर वे पगतिनिधि राज्य की भांति राजकाज देखने लगे और कुटिया में कुशों के आसन पर पतस्वी जीवन बिजाने लगे। ऐसा आदर्श और कहीं दिखाई नहीं देता कि भाग्य से प्राप्त राज्य को गर्हित मानकर उसके पारंपरिक वास्तविक अधिकारी की वस्तु मानते हुए राजा तपस्वी हो जाए। आज तो राज्य और राज्य सिंहासन के लिए मारकाट ,छीना झपटी और षड़यंत्रों की बाढ़ सी आ गई है। हालांकि भारत के महाभारत-काल में इसका सूत्रपात हो गया था। कितना अंतर है - रामकाल की उन खड़ाउओं में और आज जो फेंकी जा रही हैं उनमें।
अध्यात्म के क्षेत्र में भी गुरु की खडाऊ का पूजन भारतीय मनीषा की अपनी मौलिक साधना है। हमारे देश मंे केवल शास्त्रों की ही पूजा नहीं होती , शस्त्रों की भी होती है और शास्त्रों के पिर्माणकत्र्ता गुरुओं की चरण पादुका उर्फ खड़ाऊ उर्फ जूतों की भी। संतों की परंपरा में तो जूते गांठनेवाले संत रविदास या रैदास का समादर भी इसी देश में संभव हुआ। इतना ही नहीं राजपूताने की महारानी मीरांबाई अपने राजसी वैभव को छोड़कर उनकी चरणरज लेकर संन्यासिनी हो गई।
दूसरी ओर अपने आराध्य और श्रद्धेय के जूते सरपर धारण करने वाले देश में दूसरों को जूतों की नोंक पर रखने के अहंकार-घोषणा यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई देती है। आज के घोषणापत्रों में अपने विचारों के अलावा दूसरों को जूता दिखाने की खुली गर्जनाएं गूंज रही हैं। अपने विकास कार्यक्रमों की बजाय देसरों के सत्यानाश की ललकारों पर उनको भविष्य दिखाई दे रहा है। श्रद्धा की चरणपादुकाएं ,खड़ाऊ या जूते आक्रोश , प्रतिहिंसा और कलुषित मनोविकारों में रूपायित हो गए। यह हमारी मानसिकता का विकास है या अधोपतन ?
इतिहास के पन्नों में संभवतः 2009 ‘जूता वर्ष’ के रूप में जाना जाए। विश्व की सबसे बड़ी ताकत के रूप में सर्वमान्य अमेरिका के निवृत्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश पर बगदाद के एक पत्रकार ने साम्राज्यवाद के विरोध में अपना जूता चलाया था। जूते या तो समाज और राजनीति में या घर और संसद में चलते रहे हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी राष्ट्राध्यक्ष पर चलनेवाला यह पहला जूता था।सारा विश्व सकते मंे आ गया। इसे आंतरिक अव्यवसथा और युद्धाक्रांत देश की , दमन के विरुद्ध अभिव्यक्ति कहा गया। ताकतवर बंदूकों के शिकंजे में दबे प्रचारतंत्र द्वारा ईजाइ किया गया सूचना और संचार का , मासकम्युनिकेशन का नया तरीका था , अपेक्षाकृत नया असत्र था। अब ‘ जूता ’ समर्थों के खिलाफ अपनी बात कहने का नया वैश्विक-उपकरण बन गया।
ऐसा नहीं है कि यह गुस्सा साम्राज्यवाद , विश्पूंजीवाद और मुद्राबाजार के एकमात्र अधिनायक राष्ट्र तक ही सीमित रहा। कुछ दिनों बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ पर भी उनकी आक्सफोर्ड यात्रा के दौरान फेंका गया।
सन 2009 भारत का चुनावी वर्ष भी है। दिल्ली सहित कुछ महŸवपूर्ण राज्यों की विधानसभा के चुनाव परिणामों ने लोकसभा के चुनावों को हड़बड़ा दिया है। शायद इसी का नतीजा था कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् पर चुनावी दौर की शुरुआत पर ही पत्रकार-वात्र्ता के दौरान एक पत्रकार ने जूता फेंका। वैश्विक संघटनाओं का यह भारतीयकरण था। भारत की यही विडम्बना है कि वह सर्वौत्तम का सृजन करता है और भौंडा , और वीभत्स का अनुकरण घटिया का अनुकरध करता है। पी. चिदम्बर पर फेंके गए पहले भारतीय जूते की गूंज दूर तक हुई। बुश पर जूता फेंकनेवाले बगदाददी पत्रकार का हश्र बुरा हुआ, जेल हुई। हमारी भारतीय परम्परा क्षमाशील है। ईसामसीह से हमने यह गुण लिया है। गृहमंत्री ने इसका पालन करते हुए भारतीय पत्रकार को क्षमा कर दिया और पत्रकार ने भी खेद व्यक्त करते हुए कहा: ‘‘ मेरा उद्देश्य नुकसान पहुंचाना नहीं ,ध्यानाकर्षण था। मैंने हीरो बनने के लिए यह नहीं किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किया। जबकि अकालीदल ने तो जूता फेंकनेवाले पत्रकार जरनैल सिंह को भगतसिंह की उपाधि दे दी।
फिर तो जैसे जूते चलने का मानसून ही आ गया। 8 अप्रेल गुहमंत्री पी. चिदम्बरम् पर हमला अभी हमला ताजा ही था कि 11 अप्रेल सांसद नवीन जिंदल पर एक रिटायर्ड शिक्षक ने जूता फेंका , 17 अप्रेल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित लालकृष्ण आडवानी पर पार्टाी काषर््कत्र्ता द्वारा खड़ाª फेंकी गई , 27 अप्रेल को भारत के वत्र्तमान प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह पर एक बेरोजगार कम्प्यूटर इंजीनियर ने चप्पल फेंकी ,28 अप्रेल को दोबारा आडवानी पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चप्पल फेंकी , और आज 29 अप्रेल को कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर एक युवक नेचप्पल फेंकी। इसी बीच सिने जगत के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र पर भी एक युवक ने चप्पल फेंकी। मजे की बात यह है कि इन सबसे बेपरवाह गुजरात के कलील शहर का नगरपालिका अध्यक्ष मुकेश परमार (भाजपा) अपने कार्यदिवस का काम निपटाकर अपनी पुश्तैनी चप्पल की दूकान पर नियमित मरम्मत और चप्पल निर्माण कर रहंे हैं। मूकेश परमार के दृष्टांत से हिन्दी उर्दू के प्रख्यात लोकप्रिय लेखक कृश्नचंदर की कहानी ‘ जूता ’ का बरबस स्मदण हो आता है. यह कहानी करीब 1965-70 के आसपास उनके कहानी संकलन ‘ जामुन का पेड़ ’ में संकलित थी. हंसी-हंसी में कृश्न चंदर मर्म पर चोट करने पर कभी नहीं चूकजे थे. ‘जूता’ कहानी के माध्यम से उन्होंने समाज की बेरोजगारी , डिग्री धारियों के मोहभंग , पैसों के पीछे भागने की समाज के प्रत्येक वर्ग की मूल्य विहीन लोलुपता पर उन्होंने तीखें कटाक्ष किए हैं. कहानी का प्रारंभ जामुन के पंड़ के नीचे बैठे एक मोची के जूते गांठने के दृष्य से होती है. बातों बातों में पता चलता है कि वह मोची पीछे खडत्रे आलीशान बंगले का मालिक था. उसने समाज के लोगों के चेहरों से पर्दा उठाने के लिए सौ जूते खानेवाले को दस हजार का ईनाम देने की घोषणा कर दी. तीन दिन तक समाज के हर वर्ग के लोग छुपते छुपाते आए और जूते खाकर चले गए. तीसरे दिन वह कंगाल हो गया और वही सामने मोची की दूकान खोल ली. आज अगर यह ईनाम रखा जाए तो घटनाएं बताता हैं कि दस हजार के बदले जूते खाने के लिए लोग अधिकार के साथ आएंगे. पैसा कमाने में शर्म कैसी ? खासकर उस वक्त जब जूते-चप्पल खाने में देश विदेेश मंें लोकप्रियता हासिल हो.
भारत जितना अद्भुत देश है ,उतनी अद्भुत उसकी विरासतें है। साहित्य भी अद्भुत है। आज भी जूते चप्पलॅे फेंकने की घटनाओं पर पत्रकार अगर अपनी बात कह रहे हैं तो चित्रकार अपने कार्टून बना रहे हैं , व्यंग्यकार इसे अपनी दृष्टि से देख रहे हैं तो प्ररूज्ञासनिक अधिकारी बतौर लेखक अपने दिशा निर्देश दे रहे हैं। जहां पी. चिदम्बरम् पर फेंके गए जूते पर पत्रकार गोकुल षर्मा ने उसे ‘लोकतंत्र की निराशा ‘ कहा तो आडवानी पर फेंके गए खड़ाऊ और के विषय में उन्होंने चेताया कि यह भाजपा को चेतावनी है कि कार्यकत्ताओं को नजर अंदाज न करें। आलोक पुराणिक ने ‘ जूता संहिता ‘ बनाने की व्यंग्यात्मक पहल की जा पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एम एन बुच ने आक्रोश को कानून की हदें पार न करने की तरबीयत की।
एक व्यंग्य चित्रकार हैं मंजुल । उन्होंने पहले भारतीय जूता कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ‘मास कम्युनिकेशन इंस्टीट्यूट ’ के छात्रों को जूता फेंकने के हुनर का अभ्यास करते हुए चित्रित किया। वहीं 25 अप्रेल को उनके कार्टून में एक नेता अपने जूतों के , अपनी पत्नी के जूतों के तथा अपने बच्चों के जूतों के नाप और नम्बर बता रहा है। हर जूता प्रकरण के बाद हमारे राजनेता निर्विकार भाव से अपनी बात जारी रखते है। यह अद्भुत समभाव राजनीति की देन है या गीता की ?
यह लेख जब तक लिखा जा रहा है ( 29 अप्रेल ) तब तक लगभग प्रतिदिन जूता किसी बड़े राजनेता पर चल रहा है।येदुरप्पा पर आज की तारीख खत्म हुई हैलेकिन यह अंत नहीं है। 2009 के समाप्त होते होते , चुनाव के बाद सरकार बनते तक और सरकार बनने के बाद संसद में अभी और न जाने कितने जूते चलेंगे कौन जानता है ? इन जूतों को कौन रोक सका है जो रोकेगा ?बस केवल विश्लेषण , लेख , टिप्पणियां ,व्यंग्य ,कार्टून और कविताओं का दौर चलेगा।
यह संयोग ही है केवल कि 2003 के अप्रेल माह में विदेशों की अकादमिक यात्रा से लौटे दो भारतीय विद्वानों ने जब ‘जूतों ’ को संबोधित मेरी कविता ‘ क्रियात्मक और सर्जनात्मक ’ कहा था तब मुझे कहां पता था कि 2009 के अप्रेल को हमें जूतों के इतने कारनामे सुनने पढ़ने को मिलेंगे और वर्ष 2009 ’ जूतों का अभिनंदन वर्ष ’ कहलाएगा ? 2003 की यह कविता जरा 2009 के अप्रेल में देखी जाए..
जूतों !
पहने जाते हो पैरों में,/मगर /हाथों में देखे जाते हो
जूतों ! /सच सच बताओ /यह जुगाड़ कैसे भिड़ाते हो ?
संसद की बदल जाती हैं /सांवैधानिक प्रक्रिया
चलती नहीं आचार संहिता -/जब तुम चलते हो
स्तब्ध है विराट प्रजातंत्र /और दिव्य भारतीय संस्कृति
नकृष्ट जूतों !
तुम कितने रूप बदलते हो !
आओ , तुम्हें सिर पर धारण करें .........

Wednesday, May 6, 2009

नशा था या प्यार था !

चढ़कर उतर गया वो नशा था या प्यार था !
हंसकर मुकर गया वो नशा था या प्यार था !

तन्हाइयों मंे भर रहा था , सैकड़ों उड़ान ,
मिलकर बिखर गया वो नशा था या प्यार था !

जो गुनगुना रहा था रगों की रबाब पर ,
छुपकर किधर गया वो नशा था या प्यार था !

मीठे थे पल खुमार के ,लेकिन खटास से ,
सारा असर गया वो नशा था या प्यार था !

सच्चाइयों की रेत से पानी गुरूर का ,
रुककर निथर गया वो नशा था या प्यार था !

‘ जाहिद‘ थी खुली बांह कि हर वक़्त का झौंका ,
सर रर सरर गया वो नशा था या प्यार था !
649/16-17 04 09



. माफ़ करना !

तुम्हारी हद के अंदर आ गया था ,माफ़ करना !
अकेलेपन से मैं घबरा गया था , माफ़ करना !

तुम्हारा नाम ही बस याद था सारे सफर में ,
शिनाख़त में उसे दोहरा गया था ,माफ़ करना !

मैं कच्ची उम्र की अमराई का बेनाम पत्थर ,
तुम्हारे हाथ बरबस आ गया था , माफ़ करना !

किसी तारीख़ कि रदफदो अमल की बात मत कर ,
था मुज़रिम वक्त जो पकड़ा गया था , माफ़ करना !

बिखरकर पंखुरी ही आंख में आंसू लिये बोली ,
सबा के साथ झौंका आ गया था , माफ़ करना !

किसी हमशक्ल, हम आवाज़, हमनाम के पीछे,
मैं ही बेसाख्ता दौड़ा गया था , माफ़ करना !

खड़े हैं और भी ‘ ज़ाहिद ‘ कतारों में उमीदों की ,
मैं शायद वक्त ज्यादा खा गया था , माफ करना !
020509/050509

Sunday, April 19, 2009

भारत के पड़ौसी देश

कहते हैं पड़ोसी अच्छे हों तो समझना चाहिए कि हम स्वर्ग में हैं । हम कहां है यह देखने के लिए हमें अपने पड़ोसियों को पहचानना जरूरी है । हम भारतीय हैं ,कयोंकि हम भारत में रहते हैं । भारत का मस्तिष्क या ललाट है-कश्मीर । कवि फिरदौस ने कश्मीर के बारे में कहा है:’ अगर फिरदौस बर-रू-ए जमीं अस्त । अमी अस्तो , अमी अस्तो , अमी अस्त ।। ’ इसका अर्थ सभी जानते हैं कि जमीन पर अगर स्वर्ग है तो वह यहीं है , यहीं है , यहीं है । तीन बार ’ यहीं है ’ कहने की परम्परा कश्मीर में मुग़लों के साथ चली आई । तीन बार कहने से बात पक्की हो जाती है । इसी प्रकार तीन बार ’’नहीं है , नहीं है , नहीं है ’’ कहने से पहली बात स्वयमेव निरस्त हो जाती है । जिस देश में कश्मीर जैसा स्वर्ग है , उस देश के पड़ौसियों को भी पहचानना जरूरी है । भारत के पड़ौसियों में पहला है उत्तर दिशा में स्थित चीन , जो विश्व में सबसे बड़ी जनसंख्यावाला देश कहलाता रहा है । चीन ने ही दुनिया में ’’हिन्दी चीनी भाई भाई’’ का नारा दिया और पंचशील के साए में 1962 में कश्मीर अंदर घुसकर युद्ध किया । भारत की पूर्वोत्तर सीमाओं में फिर तिब्बत है , भूटान है जो भौगोलिक और सांस्कृतिक कारणों से चीन के नजदीक हैं । पूर्व में ’ सोनार बांगलादेश’ है , दक्षिण में ’सोने की नगरी ’ श्रीलंका है और वह समुद्र है जहां से ताज होटल में बिना किसी रोक टोक के आतंकवादी घुस आए थे । और पश्चिम में है पाकिस्तान । यह पड़ौसी हमारे ही शरीर का एक हिस्सा है । बाइ्रबिल में एक कथा है कि एडम की पसली तोड़कर परमात्मा ने ईव बनाई ताकि एडम अकेला और उदास न रहे । पाकिस्तान निर्माण भी अल्लाह की मर्जी औेर आकाओं के अस्तितव की महत्त्वाकांक्षा का पुनर्जन्म है । पूर्व का राजनैतिक भूगोल भी कुछ ऐसा ही है । हमारे भारतीय गणराज्य का वत्र्तमान राज्य है पश्चिमी बंगाल । जाहिर है कि पूर्वी बंगाल भी कहीं होना चाहिए । था पर अब नहीं है । पाकिस्तान बना तो पूर्वी बंगाल बदलकर पूर्वी पाकिसतान हो गया । बाद में ’अच्छे पड़ौेसी के रूप में उसका ’कायाकल्प’ बां्रला देश के रूप में हुआ । ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा ’ कहनेवाले पाकिस्तान चले गए और ’आमार सोनार बांगलादेश ’ कहने वाले पूर्वी पाकिसतानी हो गए । कहने को श्रीलंका या सिंहलद्वीप भी हमारे दक्षिणी समाज तमिलियनों का रूपांतरित स्वतं़ राष्ट्र है । इसी पगकार उत्तरपूर्व में नेपाल भारतीय संस्कृति का पोषक स्वतंत्र राष्ट्र है । ’ पशुपतिनाथ ’ वहीं हैं । यह वहीं पशुपतिनाथ है जो ’ विश्वनाथ ’ के नाम से बनारस में बसे हुए हैं । यही पशुपति-विश्वनाथ ’ अमरनाथ ’ के नाम से चीन में रहते हैं । इतना सब होने के बाद तो हमारे स्वर्ग में रहने के विषय में कोई प्रमाण शेष नहीं रहता । परन्तु क्या हम सचमुच स्वर्ग में हैं ? हमारे ’ स्वर्ग कश्मीर ’ में आतंकवादियों के पक्के बंकर बनाए जा चुके हैं ओर सुना है कि सेना , सरकार , मीडिया राजनैतिक दल...सबको पता है कि बन रहे हैं । ’ पशुपतिनाथ ’ के देश में चीन समर्थित माओवादी सैनिकों ने पुजारियों को विस्थापित कर दिया है । माओवाद पूजा को वैसे भी व्यक्तिगत मानता है । मगर ऐसे समय जब सीमाओं पर बंकर बन रहे हों पड़ौस में इस तरह की घटना से चैंकना स्वाभाविक है । सोचना भी प्राकृतिक है कि चीन की यह पहल पाकिस्तान के प्रति दोस्ती ओर पड़ौसी धर्म का उत्कृष्ट नमुना है । उधर बांगलादेश से घुसपैठियों ने ’ चिकननेक’ पर डावनियां बना ली हैं । भारत में जन्मा दाउद पाकिस्तान में बैठकर आतंकवादी गतिविधियां चला रहा है । अमेरिका पर हमला करनेवाला लादेन भी शक है कि अभी भी पाकिस्तान में है । फिर भी अमेरिका पाकिस्तान की दोस्ती किसी से छुपी नहीं है । बाराक और बुश के ’’नेक इरादों ’’ के बावजूद । अमेरिका के हाथ में तराजू है । वह भारत के पड़ले में संयम रखता है और पाकिस्तान के पड़लें में हथियार । पाकिस्तान अमेरिका की मजबूरी को जानता है इसलिए बंकर बनवाने में उसे कोई डर नहीं है । दो को लड़ाकर तीसरा हमेशा फायदे मंे रहता है - यह हितोपदेश और पंचतं़त्र की बोधकथाएं हमें बताती रही हैं । सौभाग्य या दुर्भाग्य से इककीसवीें सदी के प्रथम दशक की पीढ़ी इसे प्रत्यक्ष देख रही है । लड़ने ओर लड़ानेवालों को अपने अपने हिस्से का फायदा तो मिल रहा है मगर उनका कया जिन्हें फायदा से ज्यादा अमन और चैन चाहिए । ऐसे भी लोग हैं जिन्हें कुछ भी नहीं चाहिए , दो वक्त या एक ही वकत की रोटी चाहिए और जीवन चाहिए । उन्हें क्या मिल रहा है ? मैं आम या खास ’ जनता ’ की बात नहीं कर रहा हूं । जनता नाम की कोई चीज़ इस देश में कहां है ? यहां तो दलों मं बंटे हुए लोग हैं । भाषा , प्रांत , धर्म के नामपर बंटे हुए लोग हैं । कर्मचारी हैं ,अधिकारी हैं , अधिकारियों और कर्मचारियों से काम करा ले’ लोग ’ हैं । मगर जनता नहीं है जिसका जिक्र संविधान करता है । चारों ओर उद्योगपति हैं और उपभोक्ता हैं। धार्मिक संगठन हैं और बेज लगाए हुए अनुयायी हैं । निठल्ले और बतखोर लोग हैं जो अपवाह फैलाते हैं और अपने होने के सबूत इकट्ठे करते हैं । जनता कहां है ? कुलमिलाकर , जरा सोचिए ! हम किस प्रकार और कैसी जगह में हैं ? कैसे पड़ौसी हैं हमारे ? पाकिसतान के साथ अरबी घोड़े हैं , काबुल अफगान है , चीन है , अमेरिका है। हमारे साथ कौन है ? कश्मीर का स्वर्ग , सोने की चिड़िया , पशुपतिनाथ , सोनार बांगला या सोने की लंका ? या फिर सूरदास का वह पद जिसमें वह कहते हैं ’ हमारे हरि हारिल की लकरी ’ या वह प्रसिद्ध गाना जो हमें बताता है -’ दुनिया में नही जिसका कोइ्र्र उसका खुदा है ।’ कौन है हमारे साथ ? देशवासियों के मन में यह विचार आना स्वाभाविक है कि हम रामभरोसे हैं और शायद परलोक में भी हैं । कहां हैं हमारे लोक ? अंततः देश के शासको ओर जनता के सेवकों इस जगह पड़ाव डालकर सोचना चाहिए कि देश को वे खदेड़ते हुए किस तरफ ले जा रहे हैं । जनता अगर है और वह वास्तविक है , मतदाता मात्र नहीं है तो उसे भी सोचना चाहिए कि ऐसे समय उसे क्या करना चाहिए ? डाॅ. आर. रामकुमार ,

Friday, April 17, 2009

तुम कहां हो ?

मेरी हर इच्छा पर
दूध की तरह होंठों से लग जाने वाले पलों ?
धूलभरी किलकारियों से धूम मचाते हंसतेगाते ,
नौनिहाल कलों !
तुम कहां हो ?

गुलाबी रेशम सी हर पल फिसलती
बदन से लिपटी ,
मचलती ,
सुर्ख चेहरे से टपकती ,
लजाती हुई ,
धड़कनों में छुई मुई सी सकपकाती हुई-
अंधेरांे में भी दिखनेवाली राहों
दुखोंको प्यार से लड़ियाती बाहों ,
तुम कहां हो ?

धार ने बहते बहते जिसे छुआ था ,
उन बंजर पड़े खेतों में भी कुछ हुआ था ,
पनघट पर पंछीटे गए थे कितने चेहरे
किसी घाट पर कहां थे तब कोई पहरे ?
किनारों को डू आनक की वे अलमसत होड़ें ,
कभी हमने कभी तुमने जीती थी
हमारे हौसलों पर तब वह जो बीतती है
कहां बीती थी ?

हवा होते दिनों की लम्बी है यादें
प्रयासों के बावजूद अधूरे रह जाने की फरियादें
तुम कहां हो ?

तुम कहां हो जो कहते थे -
सब ठीक हो जाएगा
तुम कहां हो जिसे पता था
कि सुनहरा कल आएगा-
मोम की तरह हुई मशालों!
तुम कहां हो-
गरजती हुई दिशाओं ,
आकाश छूते उबालों

तुम कहां हो जहां से बिखरी थी यात्राएं
मैं अब भी खड़ा हूं उस मोड़ पर ,
उसी मोड़ पर जहां से मुड़ गया हे राजमार्ग
मुद्रिका होकर
अकस्मात रोके गये जुलूस को प्रतिबंध का झांसा देकर ,
लम्बीयात्राओं में गए अपने लोग ,
अब इधर नहीं आते
तुमकहां हो भोले क्षणों !
क्या इस मोड़ से कभी नहीं जाते ?
तुम कहां हो ?
तुम कहां हो ?