Monday, August 3, 2009

इतिहास की अथातो अतीत-गाथा



जहां जीवन के हास परिहास की इति होती है ,वहां से इतिहास का आरंभ होता है। हास का अंत ही इतिहास का प्रारंभ बिंदु है। अगर जयशंकर प्रसाद अश्वस्थामा होते तो आज जीवित होते है और कहते:‘‘ जब जीवन से रचनाशीलता भागती है तो उसके पैरों से इतिहास की लकीरें बनती हैं‘‘
हिंदी साहित्य का इतिहास गवाह है कि जब रामचंद्र शुक्ल के पास लिखने लायक नहीं बचा तो वे इतिहास की तरफ बढ़े। अभी हिन्दी का साहित्य शुरू ही हुआ था कि उन्होंने उसका इतिहास लिख डाला। करुणा, लज्जा ,श्रद्धा ,भक्ति ,आदि पर वे लिख चुके थे। हास पर वे कुछ न लिख सके तो हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखकर उन्होंने कुछ हद तक हास का अभाव पूरा किया। कहते तुलसी की थे ,लिखते कबीर की थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने इस हास का लाभ उठाया और शुक्ल जी के अंदर घर कर कर बैठे कबीर को बाहर निकाला और शुक्लजी को और अधिक संत्रास से बचाया।
अपने हास ,परिहास ,उपहास ,उल्हास , आदि हासमूलक प्रवृत्तियों के चुकने पर सभी इतिहास होने या बनने की ओर भागते हैं। वे आत्म-इतिहास की लक्ष्य-भूमि पर आत्मकथा ,जीवनी या अथ आत्मगाथा लिखने की ओर प्रवृत्त होते है। अन्य शब्दों में कहें तो जब आदमी का वत्र्तमान व्यतीत हो जाता है तो वह अतीत की गौवशाली परम्परा का व्यूह रचता है और फिर उसी के जाले में झूले की तरह झूल जाता है। जीवन की इस इतिहासगामी प्रवृत्ति का पता लेखक की रचनाओं में मिलने लगता है। जी चुकने की अधेड़ अवस्था में लेखक की रचनाएं इतिहास ,अतीत ,परम्परा ,संस्कृति ,पुराणकथा इत्यादि की जुगाली करने लगता है। पाठक समझ जाता है कि अगली छलांग में लेखक आत्मकथा पगुरानेवाला है। अगर लेखक की रचनाओं मे ंदम होता है तो पाठक उसकी आत्मकथा को भी झेलने का इंतजार करता है वर्ना सतर्क हो जाता है। फिर लेखक ‘स्वातः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा‘ का स्तवन करता हुआ सुखपूर्वक अपनी ही आत्मकथा का पारायण करता है।
इधर मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं ,नए नए लेखकों में भी यही प्रवृत्ति पनपने लगी है। यश गोयल ‘नए जमाने के आधुनिक कोप भवन‘ की शरूआत में ही अतीत में आव्रजन करते हुए लिखते हैं,‘ रामायण और महाभारत काल से कोपभवन होता आया है।‘ दूसरे पैरामें कहते हैं ,‘ मुगलकाल में राजा अपने महल में कोपभवन बनवाते थे।‘ फिर सूचना देते हैं कि ‘ इक्कीसवीं सदी में आते आते राजनीति में परास्त ,शिकस्त , और कुंठित नेतागण , भूतपूर्व मंत्री , बड़े बड़े आई.ए.एस और आई.पी.एस अधिकारी भी कोपभवन में चले जाते हैं।’
सूर्यकुमार पांडेय ने अपने प्रवचन ‘भौतिक संसार में जागो और त्यागो’ के दूसरे चरण में प्रबोध दिया है कि ‘त्याग हमारी परम्परा का अंग है। श्रीराम ने अपने पिता दशरथ के वचनों की लाज रखने के लिए राजपाट क त्याग किया था।’
अपने इतिहास प्रेम का परिचय जगदीशचंद्र भावसार ‘ दूसरों के पैरों में अपने जूतों की तलाश में’ कहते हैं ,‘नगर के इतिहास में यह पहला मौका था जब तमाम साहित्यकार किसी असाहित्यिक विचार पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे . . . भारतेन्दु युगीन भ्रमरजी ने चिंतन प्रक्रिया समाप्त करते हुए सन्नाटा तोड़ा. . . . हम पूज्य बापू के मार्ग पर चलेंगे. . . ’ इत्यादि।
यशवंत व्यास ने,‘ खिंचे फोटू मेरा तुम्हारा..’ में अपने व्यतीत बचपन के अतीत की तरफ रवीन्द्रनाथ त्यागी की तरह जाते हुूए ओपनिंग इन पंक्तियों से की है,‘बचपन में बड़ा शौक था कि कोई फोटू खींच ले।’ फिर तीसरे पैरा में सीधे रीतिकाल में धावा बोलते हुए कहते हैं ,‘ बिहारी के वक़्त में इसका आविष्कार होता तो विरह में सूखी नायिका का जो चित्र फोटोग्राफर नायक तक पहुंचाता उसमें कुछ दिखाई नहीं देता।’ फिर वे नियमानुसार आधुनिक युग में आते हुए लिखते हैं ,‘एक बार प्रेमचंदजी का फोटू छपा तो उनके पैर में फटा जूता दिखाई दे रहा था।’
देख रहे हैं हम कि इतिहास प्रेम की पलायनवादी प्रवृति इधर पनप रही है। इतिहास प्रेम कभी अंकुरित दिखाई देता है तो कभी पेड़ बनकर खड़ा हो जाता है। जिन लोगों में अभी इतिहासप्रेम का बीज पड़ा ही होता है , वे भी पुरानी लोकोक्ति को शीर्षक बनाकर संस्कृति और परम्परा की ओर अपने रुझान का परिचय देते हैं,’ जैसे अतुल कनक ने ,’मन के जीते जीत. .’ में दूसरे पैरा मे लिखा है ,’जो लोग हमारे खिलाड़ियों को कोस रहे हैं , वे हमारी संस्कृति और परम्परा को नहीं जानते। हम उस अशोक महान के वंशज हैं जिन्होंने अपने पराक्रम में कलिंग युद्ध में विजय पाने के बाद हिंसा को अलविदा कह दिया था।’
आपने सोचा , क्यों हमारे नवांकुर इतिहास की तरफ लौट रहे हैं ? कहते है, प्रलय होनेवाली है। शायद इसीलिए लोग आननफानन में इतिहास की पेटी प्रियदर्षिनी की कालमंजूषा की तरह जमीन में गाड़ देना चाहते हैं कि फिर कभी दुनिया बने और भूकंप आए तो यह इतिहास उभर आए।
अंततः मुझे लगता है कि मैं समीक्षक हुआ जा रहा हूं। प्रसिद्ध और एकमात्र सुखी समीक्षक नामवरसिंह ने भी अंत में डाॅ. रामविलास शर्मा पर आरोप करते हुए लिखा था -‘ और रामविलास भी पलटकर पहुंचे वेदों पर ...‘ परन्तु नामवरसिंहजी भी तो घिसटकर वहीं गए ,रामविलासजी के साथ।
आहा ! रामविलासजी और नामवरजी के नाम लेकर मैं अच्छा फील कर रहा हूं। यानी मेरे मुखर होने की संभावना बढ़ रही है। लगता है मुझे कुछ करना ही पड़ेगा। देखता हूं कुछ करता हूं। नहीं जमा तो इतिहास की तरफ लौट जाऊंगा। 24-250709

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