Wednesday, August 5, 2009

मां



मां - 1

‘‘मम्मी मम्मी मम्मी’’
बजती है जैसे आरती में बांसुरी
जैसे एक लय में पीटे जा रहे हों
दिशाओं के ढोल

वह किचन और बेडरूम में नहीं थी
बाथरूम भी किसी टब सा खाली था
पिछवाड़े के आंगन से भी नहीं आ रही थी
कपड़े पछीटने की आवाजें
बच्चा उसे खाने की पतीली में खुरच रहा था
फर्स पर पैर रगड़ते हुए जैसे
उसे खोद रहा था हड़प्पा की तरह

ओह !
सामने के आंगन में फैली थी
खुली हुई धुली धूप सी मां!
कपड़े फैलाते हुए
तार के इस सिरे से उस सिरे तक
जासौन के फूलों से भरी हुई
डाली सी झूल रही थी मां


मां - 2

अभी अभी आंसू की तरह ढलकी है
मेरे गालों से मां की याद
आंखों के भरपूर दिन में जैसे
हुआ है काला सूर्यग्रहण
हथेलियां तुलसी के पत्तों की सी
अपने आप ढांप गई हैं मेरा चेहरा
लम्हों की बाढ़ में डुबकियां लेता मैं
गंगा नहा रहा हूं

मैं मां की तस्वीर को सीने से लगाए
बरसी मना रहा हूं


मां - 3

मैं उसकी थैली का बिल्कुल आखरी सिक्का
उसकी छाती पर आखरी बार उतरा हुआ दूध

मां बूढ़ी हो गई मुझे बड़ा करते करते
बड़े जो बहुत बड़े थे भाई मेरे
उनकी सैकड़ों समस्याओं में भी मां एक थी
और मैं रास्ते में उभरा हूआ एक पत्थर

उनके पैरों में अक्सर लग जाता था
मां ने मुझे उखड़ने और फेंकने से
न जाने कितनी बार बचाया
मगर मैं मां के कभी काम न आया
जब वह और बूढ़ी हुई तो
मैं बीमार पड़ गया
मां को पिता की पेंशन मिली
बूढ़ी बाड़ी में तुरई के बेल की तरह
वह मां की आंखरी सांस तक फली है

इधर भुगतकर देखा है मैंने अक्सर
अस्थमा के जानलेवा दौरों में
कि मुझसे दूर होकर भी
आकाश के कई नाम-धारी भ्रमों में खोकर भी
मृत मां !
मेरी छाती में सांसों की तरह चली है।
040809
नोट: ऊपर मां के चित्र पर मेरे बेटे ने 12 वीं कक्षा में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।

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