Wednesday, July 22, 2009

चांद का मुंह काला


उर्फ सदी का सबसे बड़ा सूर्य ग्रहण
आज 22 जुलाई इक्कीसवीं सदी है। नौवें सावन की पहली अमावस्या की रातवाला दिन। इसी दिन सदी का सबसे बड़ा सूर्यग्रहण है। लेकिन यह सबसे बड़ी घटना घोर बादलों के मोटे पर्दों के पीछे घटेगी। जो देख सकेंगे वो विज्ञान की दृष्टि से भाग्यशाली होंगे किंतु हो सकता है ज्योतिष की दृष्टि से राहू नामका दुष्ट ग्रह उनकी जिंदगी में भी ग्रहण लगाए। ऐसा अंधविश्वास हमारी आस्था का आघार है।
आज मुझे गजानन माधव मुक्तिबोध की एक कविता का शीर्षक याद आ रहा है।‘ चांद का मुंह टेढ़ा‘। ईद के चांद पर शायद प्रगतिशील महाकवि ने यह कविता लिखी थी जो प्रायः मुंह छुपाए रहता है। तभी तो न दिखाई देनेवाले देखनेलायक लोगों को देखकर लोग कहते हैं -‘हुजूर आजकल तो आप ईद का चांद हो गए हो।‘ ईद का चांद साल में दो बार या तीन बार दिखता है।
अमावस में चांद नहीं दिखता। अपनी इस कुण्ठा को वह हमेशा लाइट में रहनेवाले सूरज के सामने आकर अपने अस्तित्व का बोघ कराता है। वह कहना चाहता है कि शीतल यानी ‘कूल‘ लोगों को नेपथ्य में ढकेलने का प्रयास करोगे तो वह रोशनी के केन्द्र के सामने खड़े होकर अपना वर्चस्व सिद्ध कर देगा। सूर्यग्रहण के दिन का चांद उन लोगों का सहज ही प्रतिनिधि हो जाता है जो काम तो बहुत कर रहे हैं और बहुत अच्छा भी कर रहे हैं लेकिन ‘छिछोरी-विज्ञापनबाजी‘ और ‘घटिया-राजनीति‘ के चलते उनका वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो रहा है।
क्षमा करें ,यहां मैं चांद के अवमूल्यन या सूरज के सामंतवाद का विवाद नहीं खड़ा कर रहा हूं। मैं एक द्वंद्वात्मक विचारवाद का मंथन करने का प्रयास कर रहा हूं। हुआ क्या है कि सूरज पर गीत कम बने हैं। चांद की शिफारिशें ज्यादा हुई हैं। चांद सान्ैदर्यवादियों का नायक है। सूरज कामकाजी लोगों का इतिहास पुरुष। कामकाज में स्थिरता और एकनिष्ठा होती है। सौन्दर्यवाद चंचलता को नवोन्मेष की उत्क्रांति बनाकर पेश करता है। सूरज अपने पथ से भटककर कभी किसी के घर में नहीं घुसा। वह अपनी घुरी या खूंटी पर कायम है। वास्तव मंे उसका कोई पथ नहीं है ,जैसा कि विज्ञान कहता है।
उसका पद है ,स्थिर पद। वहां से वह कहीं नहीं जाता। जिसको जरूरत होती है वह उसके आसपास मंडराता है। हनुमान, संपाती और राहू की कथाएं सभी जानते हैं।
कर्म-प्रधान महापुरुषों के साथ जो हुआ वह सूरज के साथ भी हुआ। चांद जब तब उसके मार्ग में खड़ा होकर गीदड़ भभकी देता है तो कभी गिद्ध संपाती उससे जा भिड़ता है। कभी हनुमान खेल खेलमें उसे निगल लेते हैं। नानी दादी बताती है कि राहू उसे बदले की भावना से निगलने की कोशिश तो करता है मगर सूरज को कौन निगल सकता है ? थोड़ी देर में ही जब हलक की हड्डी हो जाता है सूरज ,तो उसे उगलना ही पड़ता है। गंभीर महापुरुषों की भांति सूरज पलटकर उनपर वार नहीं करता । वह अपने काम से काम रखता है।
नानी दादी कहना चाहती हैं कि सूरज की तरह बनो। अपना काम करते चलो दुष्ट विघ्नसंतोषियों की परवाह मत करो।
सूर्यग्रहण के दिन में चांद को देखता हूं तो पाता हूं कि जैसे वह राष्ट्रभाषाचार्य मटुकनाथ है। काशी के कुछ उग्र छात्रों ने उसका मंुह काला कर दिया है और घबराकर सूरज के ज्योतिकुण्ड में कूदकर अपनी कालिख पोंछ लेना चाहता है। आचार्य मटुकनाथ ने अपना मुंह नहीं धोया। अपना कुष्णमुख लेकर वह प्रेम की बारहखड़ी जूली के साथ दुनिया को पढ़ाने निकल पड़े।
चांद ने क्या किया था ? पुराण कहते है कि अपने गुरू वृहस्पति के सूने घर में वे घुस गए थे। स्वर्ग के राजा होने का मद चंद्रदेव को हो गया था। पदके नशें में जैसा कि होता है ,राजनयिकों को कोई रिश्ता नहीं दिखाई देता। तुलसी ने कहा भी है-‘को अस जनमा है जग माही ,पद पाए जाको मद नाहीं।’ परन्तु गुरुमाता तारा ने उसे कालामुंह
लेकर फिरते रहने का श्राप दिया। चांद उसी काले मुंह को उठाए ,मुझे लगता है, आज भी घूम रहा है। 220709

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