Sunday, August 16, 2009
और अब ‘स्वाइन डे’: वाराह जयंती
ज्योतिषियों ने बताया है कि 23 को वराह जयंती है। हम पहले ही वराह से भयभीत हंै। भय से हमारी रक्षा करनेवाले मनोरंजन-उद्योग मुम्बई और पुणे में वराह महाराज ने जो आतंक फैला रखा है, वह क्या किसी से छुपा है ? पुराने लोगों के लिए बम्बई और पूना की याद दिलाने के लिए जैसे यम-मित्र भगवान वराह महाराज के दरबार में कोई सरोजखान की शिष्या माधुरी या ऐश्वर्या की तरह नाच गा रही हैं:‘‘बंबई से गई पूना ,पूना से गई दिल्ली, दिल्ली से गई पटना ; फिर भी ना मिला सजना ।’’ कौन है यार यह सजना ? मिलता क्यों नहीं इससे । तुम्हें ढूंढने के चक्कर में ये स्वाइन-गल्र्स पूरी दुनिया में आतंक मचा रही हैं। मिललो यार , इन्हें भी ठंडक मिले और हमें भी राहत।’’
मेरी समझ में एक चीज़ नहीं आ रही है कि आतंक हमेशा मुम्बई या पूना या दिल्ली या पटना या कलकत्ता को ही क्यों चुनता है। ताजमहल होटल ,संसद आदि से हम परिचित ही हैं। एक दुबली पत्ली लड़की ने कमर मटका कर कहा था ‘ काशी हीले पटना हीले कलकत्ता हील ला , हो लब्कै हमरी जब कमरिया सारी दुनिया हीले ला।’’ हुआ भी वही। ‘वलर््ड वाइड रियलिटी शो’ में उसी बरबटी छाप लड़की ने सचमुच दुनिया को हिला दिया।
मैं तो हिल गया हूं। 23 अगस्त को गणेश चतुर्थी भी है और वराह जयंती भी। एक है विघ्नहरण विनायक , दूसरा है मौत का ऐलान । अब इसका क्या मतलब है । क्या दोनों मित्र बन गए हैं। अमेरिका और पाकस्तान की मि़ता हमने देखी हैं। अब हम देखेंगे कि वराहरोग यानी स्वाइन फ्लू विघ्नविनायक से मिलकर अपनी आतंकवादी गतिविधियों का श्रीगणेश करेंगे। जैसा कि डाक्टर कभी डराते हैं तो कहते हैं ‘‘एडस है , हैपीटाइटस है, चिकुनगुनिया है ....जानलेवा बीमारी है। मुम्बई दिल्ली जैसी जगहों में इतने मर गए तो तुम किस खेत की मूली हो। डरो और हो सके तो डरकर मर जाओ। ’’ ये डाक्टर विघ्नहरण हैं मगर दुश्मनों की बोली बोल रहे हैं। चिकुनगनिया का मच्छर चोरी छुपे डंक मारता है ये खुले आम नश्तर चुभो रहे हैं। जब देखते हैं कम ही लोग मर रहें हैं और झूठे भय की पोल खुल रही है तो फिर झूठी तसल्ली भी देते हैं कि दवा खोज ली गई है। ऐसी तसल्ली हर महामारी की घोषणा के बाद दी जाती है और किसी कम्पनी की कोई दवा बाजार में ऊंचे दामों में बिकने लगती है। क्या करें इस देश की महामारियों का , डाक्टरों और दवाइयों का ? इनका कुछ नहीं हो सकता। हमारा ही कुछ हो सकता है । गायत्री ने ठीक कहा है कि हम सुधर जाएंगे तो संसार अपने आप सुधर जाएगा। तो चलें गणेशजी को मनाएं और वराह देव को भी। त्रत्राहिमाम त्राहिमाम रक्षमाम रक्षमाम पाहिमामा पाहिमाम कहकर। हाथ की लकीर में होगा तो अच्दे परिणाम आएंगे। यह भ्ससग्यवादी और कर्मवादी दोनों रास्ते एक साथ हैं। भागयवादी हाथ की लकीरों पर भरोसा करवाते हैं और कर्मवादी हाथ पर। चलिए गठबंधन के युग में हम गणेश महाराज को भी घ्यायें और शूकर देवता को भी। यही कूटनीति भी कहती है। इस दल में पिता तो उस दल में पुत्र। पंकज-पंक महामार्ग यही है मित्रों। घबराना बिल्कुल मत मैं हूं न। 160809
Friday, August 7, 2009
प्यार से मेरे ज़ख़्म भरते हैं
इश्क़ का आज इम्तेहां तो नहीं
हंसके कहता है कुछ हुआ तो नहीं
बावली आस पूछती सबसे
तुमसे कुछ कहके वो गया तो नहीं
प्यार से मेरे ज़ख़्म भरते हैं
दुखके-काटे की यह दवा तो नहीं
उसकी सूरत किसी ने कब देखी
हममें तुममें ही वो छुपा तो नहीं
सबकी आंखें मुझी पै ठहरी हैं
कौन हूं मैं उन्हें पता तो नहीं
जो किसी शख्स से नहीं मिलता
कहिए ‘ज़ाहिद’ वही खुदा तो नहीं
डॉ. रामार्य
1 दुख के मारे
Wednesday, August 5, 2009
मां
मां - 1
‘‘मम्मी मम्मी मम्मी’’
बजती है जैसे आरती में बांसुरी
जैसे एक लय में पीटे जा रहे हों
दिशाओं के ढोल
वह किचन और बेडरूम में नहीं थी
बाथरूम भी किसी टब सा खाली था
पिछवाड़े के आंगन से भी नहीं आ रही थी
कपड़े पछीटने की आवाजें
बच्चा उसे खाने की पतीली में खुरच रहा था
फर्स पर पैर रगड़ते हुए जैसे
उसे खोद रहा था हड़प्पा की तरह
ओह !
सामने के आंगन में फैली थी
खुली हुई धुली धूप सी मां!
कपड़े फैलाते हुए
तार के इस सिरे से उस सिरे तक
जासौन के फूलों से भरी हुई
डाली सी झूल रही थी मां
मां - 2
अभी अभी आंसू की तरह ढलकी है
मेरे गालों से मां की याद
आंखों के भरपूर दिन में जैसे
हुआ है काला सूर्यग्रहण
हथेलियां तुलसी के पत्तों की सी
अपने आप ढांप गई हैं मेरा चेहरा
लम्हों की बाढ़ में डुबकियां लेता मैं
गंगा नहा रहा हूं
मैं मां की तस्वीर को सीने से लगाए
बरसी मना रहा हूं
मां - 3
मैं उसकी थैली का बिल्कुल आखरी सिक्का
उसकी छाती पर आखरी बार उतरा हुआ दूध
मां बूढ़ी हो गई मुझे बड़ा करते करते
बड़े जो बहुत बड़े थे भाई मेरे
उनकी सैकड़ों समस्याओं में भी मां एक थी
और मैं रास्ते में उभरा हूआ एक पत्थर
उनके पैरों में अक्सर लग जाता था
मां ने मुझे उखड़ने और फेंकने से
न जाने कितनी बार बचाया
मगर मैं मां के कभी काम न आया
जब वह और बूढ़ी हुई तो
मैं बीमार पड़ गया
मां को पिता की पेंशन मिली
बूढ़ी बाड़ी में तुरई के बेल की तरह
वह मां की आंखरी सांस तक फली है
इधर भुगतकर देखा है मैंने अक्सर
अस्थमा के जानलेवा दौरों में
कि मुझसे दूर होकर भी
आकाश के कई नाम-धारी भ्रमों में खोकर भी
मृत मां !
मेरी छाती में सांसों की तरह चली है।
040809
नोट: ऊपर मां के चित्र पर मेरे बेटे ने 12 वीं कक्षा में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।
Monday, August 3, 2009
इतिहास की अथातो अतीत-गाथा
जहां जीवन के हास परिहास की इति होती है ,वहां से इतिहास का आरंभ होता है। हास का अंत ही इतिहास का प्रारंभ बिंदु है। अगर जयशंकर प्रसाद अश्वस्थामा होते तो आज जीवित होते है और कहते:‘‘ जब जीवन से रचनाशीलता भागती है तो उसके पैरों से इतिहास की लकीरें बनती हैं‘‘
हिंदी साहित्य का इतिहास गवाह है कि जब रामचंद्र शुक्ल के पास लिखने लायक नहीं बचा तो वे इतिहास की तरफ बढ़े। अभी हिन्दी का साहित्य शुरू ही हुआ था कि उन्होंने उसका इतिहास लिख डाला। करुणा, लज्जा ,श्रद्धा ,भक्ति ,आदि पर वे लिख चुके थे। हास पर वे कुछ न लिख सके तो हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखकर उन्होंने कुछ हद तक हास का अभाव पूरा किया। कहते तुलसी की थे ,लिखते कबीर की थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने इस हास का लाभ उठाया और शुक्ल जी के अंदर घर कर कर बैठे कबीर को बाहर निकाला और शुक्लजी को और अधिक संत्रास से बचाया।
अपने हास ,परिहास ,उपहास ,उल्हास , आदि हासमूलक प्रवृत्तियों के चुकने पर सभी इतिहास होने या बनने की ओर भागते हैं। वे आत्म-इतिहास की लक्ष्य-भूमि पर आत्मकथा ,जीवनी या अथ आत्मगाथा लिखने की ओर प्रवृत्त होते है। अन्य शब्दों में कहें तो जब आदमी का वत्र्तमान व्यतीत हो जाता है तो वह अतीत की गौवशाली परम्परा का व्यूह रचता है और फिर उसी के जाले में झूले की तरह झूल जाता है। जीवन की इस इतिहासगामी प्रवृत्ति का पता लेखक की रचनाओं में मिलने लगता है। जी चुकने की अधेड़ अवस्था में लेखक की रचनाएं इतिहास ,अतीत ,परम्परा ,संस्कृति ,पुराणकथा इत्यादि की जुगाली करने लगता है। पाठक समझ जाता है कि अगली छलांग में लेखक आत्मकथा पगुरानेवाला है। अगर लेखक की रचनाओं मे ंदम होता है तो पाठक उसकी आत्मकथा को भी झेलने का इंतजार करता है वर्ना सतर्क हो जाता है। फिर लेखक ‘स्वातः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा‘ का स्तवन करता हुआ सुखपूर्वक अपनी ही आत्मकथा का पारायण करता है।
इधर मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं ,नए नए लेखकों में भी यही प्रवृत्ति पनपने लगी है। यश गोयल ‘नए जमाने के आधुनिक कोप भवन‘ की शरूआत में ही अतीत में आव्रजन करते हुए लिखते हैं,‘ रामायण और महाभारत काल से कोपभवन होता आया है।‘ दूसरे पैरामें कहते हैं ,‘ मुगलकाल में राजा अपने महल में कोपभवन बनवाते थे।‘ फिर सूचना देते हैं कि ‘ इक्कीसवीं सदी में आते आते राजनीति में परास्त ,शिकस्त , और कुंठित नेतागण , भूतपूर्व मंत्री , बड़े बड़े आई.ए.एस और आई.पी.एस अधिकारी भी कोपभवन में चले जाते हैं।’
सूर्यकुमार पांडेय ने अपने प्रवचन ‘भौतिक संसार में जागो और त्यागो’ के दूसरे चरण में प्रबोध दिया है कि ‘त्याग हमारी परम्परा का अंग है। श्रीराम ने अपने पिता दशरथ के वचनों की लाज रखने के लिए राजपाट क त्याग किया था।’
अपने इतिहास प्रेम का परिचय जगदीशचंद्र भावसार ‘ दूसरों के पैरों में अपने जूतों की तलाश में’ कहते हैं ,‘नगर के इतिहास में यह पहला मौका था जब तमाम साहित्यकार किसी असाहित्यिक विचार पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए थे . . . भारतेन्दु युगीन भ्रमरजी ने चिंतन प्रक्रिया समाप्त करते हुए सन्नाटा तोड़ा. . . . हम पूज्य बापू के मार्ग पर चलेंगे. . . ’ इत्यादि।
यशवंत व्यास ने,‘ खिंचे फोटू मेरा तुम्हारा..’ में अपने व्यतीत बचपन के अतीत की तरफ रवीन्द्रनाथ त्यागी की तरह जाते हुूए ओपनिंग इन पंक्तियों से की है,‘बचपन में बड़ा शौक था कि कोई फोटू खींच ले।’ फिर तीसरे पैरा में सीधे रीतिकाल में धावा बोलते हुए कहते हैं ,‘ बिहारी के वक़्त में इसका आविष्कार होता तो विरह में सूखी नायिका का जो चित्र फोटोग्राफर नायक तक पहुंचाता उसमें कुछ दिखाई नहीं देता।’ फिर वे नियमानुसार आधुनिक युग में आते हुए लिखते हैं ,‘एक बार प्रेमचंदजी का फोटू छपा तो उनके पैर में फटा जूता दिखाई दे रहा था।’
देख रहे हैं हम कि इतिहास प्रेम की पलायनवादी प्रवृति इधर पनप रही है। इतिहास प्रेम कभी अंकुरित दिखाई देता है तो कभी पेड़ बनकर खड़ा हो जाता है। जिन लोगों में अभी इतिहासप्रेम का बीज पड़ा ही होता है , वे भी पुरानी लोकोक्ति को शीर्षक बनाकर संस्कृति और परम्परा की ओर अपने रुझान का परिचय देते हैं,’ जैसे अतुल कनक ने ,’मन के जीते जीत. .’ में दूसरे पैरा मे लिखा है ,’जो लोग हमारे खिलाड़ियों को कोस रहे हैं , वे हमारी संस्कृति और परम्परा को नहीं जानते। हम उस अशोक महान के वंशज हैं जिन्होंने अपने पराक्रम में कलिंग युद्ध में विजय पाने के बाद हिंसा को अलविदा कह दिया था।’
आपने सोचा , क्यों हमारे नवांकुर इतिहास की तरफ लौट रहे हैं ? कहते है, प्रलय होनेवाली है। शायद इसीलिए लोग आननफानन में इतिहास की पेटी प्रियदर्षिनी की कालमंजूषा की तरह जमीन में गाड़ देना चाहते हैं कि फिर कभी दुनिया बने और भूकंप आए तो यह इतिहास उभर आए।
अंततः मुझे लगता है कि मैं समीक्षक हुआ जा रहा हूं। प्रसिद्ध और एकमात्र सुखी समीक्षक नामवरसिंह ने भी अंत में डाॅ. रामविलास शर्मा पर आरोप करते हुए लिखा था -‘ और रामविलास भी पलटकर पहुंचे वेदों पर ...‘ परन्तु नामवरसिंहजी भी तो घिसटकर वहीं गए ,रामविलासजी के साथ।
आहा ! रामविलासजी और नामवरजी के नाम लेकर मैं अच्छा फील कर रहा हूं। यानी मेरे मुखर होने की संभावना बढ़ रही है। लगता है मुझे कुछ करना ही पड़ेगा। देखता हूं कुछ करता हूं। नहीं जमा तो इतिहास की तरफ लौट जाऊंगा। 24-250709
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