Saturday, July 4, 2009

‘ दाता के गुण गाओ -‘

राग-दरबारी उर्फ राग-विरुदावली

भीषण गर्मी की लू भरी शाम में भी हम इवनिंग वाक करने निकले थे। म्यूजिक प्लेअर में कोई गाायक ‘रागदरबारी ‘ में एक बंदिश गा रहा था -‘दाता के गुण गाओ...‘। गुणगान की बंदिश होने के कारण ही शायद ‘रागदरबारी‘ दरबारियों का राग कहलाता है। हालांकि राजदरबार के एक राजपत्रित दरबारी ने शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा-व्यवसाय के सिर पर तबला बजाते हुए तोड़-मरोड़कर थाट-तोड़ी पर पढ़ा जानेवाला ‘रागदरबारी’ गाया ,जो उतना ही लोकप्रिय हुआ ,जितना मर्मस्थल पर हाथ रखकर गानेवाले पापी गायक स्व. माइकल हुए। वे आज ही स्वर्गीय हुए हैं। उन्हें इन पंक्तियों के लेखक ने कभी सुना नहीं और देखा भी नहीं हैै। पर नाम तो नाम होता है। नाम होता है तो फिर देखने सुनने की क्या जरूरत?
वैसे गाए जानेवाले राग- दरबारी में बिला-शक मिठास बहुत है। यह मिठास सुरों की है या गुणगान की यह तो कोई सुरंदाज़ ही बता सकता है। मेरे जैसे साधारण सुननेवाले तो केवल संगीत की मिठास ग्रहण करते हैं। संगीत के सुर-शास्त्र से उनको क्या लेना देना ? जैसे भोजन बहुत बढ़िया है , इसकी तमीज़ हर खानेवाले को होती है लेकिन पाकशास्त्र का ज्ञान तो पकानेवाले को ही होता है। पकाने से याद आया कि शास्त्रीय संगीत को भी पका हुआ ,पक्का संगीत कहते हैं । शायद इसीलिए बहुत से लोग शास्त्रीय संगीत सुनकर कहते हैं कि क्या पका रहा है यार।
रागों के मामले जब उठे हैं तो बताना लाज़िमी है कि एक होता है ‘बादल-राग‘। ‘बादल-राग‘ को मेरे कुछ मित्र साहित्यिक-राग कहते हैं। उनके अनुसार ‘बादल-राग‘ निराला ने लिखा है। पर मैंने सुना है कि मियां तानसेन के पास भी कोई ‘बादल-राग‘ था जिसे गाने से बादल आ जाते थे। मेरे कुछ नान- म्यूजिकल मित्रों को भी यह पता है। इसलिए पसीना पसीना होकर शाम को घूमते हुए एक ने कहा: ‘‘ मर गए यार सड़ी हुई गर्मी और बीस बाइस घंटों की बिजली कटौती के मारे..अब तो कोई जाए और मानसून को मनाए..उसकी सूनी मांग को मान के सिंदूर से सजाए ..कोई कहीं से मियां तानसेन को लाए और वह आकर बादल राग गाए.....और इतना गाए कि पानी गिर जाए...थोड़ा सा तो चैन आए...‘‘
दूसरे मित्र ने कहा:‘‘ बादल राग से केवल बादल घिरेंगे...पानी गिराने के लिए तो किसी को राग-मल्हार गाना पड़ेगा....सुना है तानसेन का प्रतिद्वंद्वी बैजू बावरा था जो मजे से राग मल्हार में गाता था ..तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा.....अगर कहीं वो मिल जाए तो हमारे गांव में गंगा जमुना बह जाएं.. ‘‘
मैंने उकताकर गर्दन पर बहनेवाले पसीने को पोंछकर कहाः‘‘ यार एक बात बताओ.. क्या तुम्हीं लोगों ने ठेका ले लिया है गंगा जमुना बहाने का....‘‘
‘‘ तो तुम्हीं ले लो ...हम को तो बरसात चाहिए जिससे कि बाइस तेइस घंटों की अंधेरी हवा विहीन रातों से छुटकारा मिल सके...‘‘ बात उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं थी। हमारे गांव में बिजली की अनिश्चितकालीन कटौती बाइस तेइस घंटे ही की होती है। मैंने बात बदलने के लिए कहा ‘ बिजली की समस्या के लिए भी एक राग है......दीपक राग। सुना है कोई मियां इसे गाते थे तो दीपक जल उठते थेे।‘
‘दीपक तो जल जाएंगे पर उससे जो गर्मी बढ़ेगी तो हम कहां जाएंगे... पहले तो राग मल्हार वाले को बुलवाओ...दीपक की बाद में सोचेंगे।‘ मित्र ने चिढ़कर कहा । इससे तत्काल लाभ यह हुआ कि हमारा खटराग बंद हो गया। दाता के गुण गानेवाले राग-दरबारी की भी कोई ध्वनि अब हमारे कानों में नहीं पड़ रही थी। मगर यह शांति कुछ देर की थी। कहीं दूर से भजनों के गाए जाने की आवाज आ रही थी। अब यह कौन सा राग है? हम तीनों ने एक साथ एक दूसरे का देखा।
‘‘मेरे ख्याल से यह कल्याण राग है...क्योंकि भजन का संबंध कल्याण से होता है...‘‘ मैंने कहा।
‘‘ कल्याण से तो ठीक है ,पर किसके कल्याण से ?‘‘ मित्र ने पूछा।
‘‘ सबके कल्याण से ..‘‘ मैंने कहा । इस पर मित्र ने कहा:‘‘ तुम इतने यकीन से कैसे कह सकते हो कि भजन का संबंध सबके कल्याण से होता है... भजन गानेवालों को तुम जानते हो ?‘‘मित्र ने पूछा।
‘‘ इसमें जानने की क्या जरूरत ...भजन तो ईश्वर का गुणगान है ,प्रार्थना है...सबके साथ मिलकर गाई जा रही है इसलिए जाहिरन सबके हित और कल्याण के लिए गाई जा रही है...‘‘ मैंने तर्क रखा। मित्र ने मेरे तर्कों पर झाड़ू मारते हुए कहा ‘‘ लीपापोती मत करो...तुम नहीं जानते ..भजन की नीति...? यह वही लोग है जो मंदिरों में भजन करते हैं और फिर शराफत की आड़ में बेईमानियां भी करते हंै।‘‘
‘‘ तुम तो राग भीम पलासी अलापने लगे...भीम की तरह भजनगीरों को पटखनी देने लगे ..बात क्या है ?‘‘
‘‘ मै इस समय राग में हूं..सभी पर मुझे आज राग आ रहा है....‘‘
‘‘ लेकिन तुम राग कहां कर रहे हो ,तुम तो गुस्सा कर रहे हो ...?‘‘
‘‘ मराठी में गुस्सा को ही राग कहते हैं...‘‘
‘‘ मगर गुस्सा किस बात का... मराठों की मायानगरी मुम्बई में तो झमाझम बारिश हो रही है.... ‘‘
‘‘ इसी बात का तो गुस्सा है ...आज अगर मैं मुम्बई में होता तो बारिश में भीग रहा होता । राग बिहाग और मल्हार छेड़ रहा होता..यहां तो तपिश के मारे जान निकली जा रही है..चारों तरफ राग रुदाली की बेसुरी ताने खिंची हुई है.... राग नहीं होगा मुझे ?‘‘
गर्मी के जिस असर के बारे में मैं सुना करता था वह मित्र पर शायद हो गया था। मैं चुप रहा ।लेकिन तभी एक ऐलान हमारे कानों में सुनाई पड़ा:‘‘ नागरिक बंधुओं ! मानसून के बिलंब के चलते और नदी के जल संग्रहण केन्द्र में पानी के अभाव में नगर पालिका द्वारा प्रदान किया जाने वाला पानी अब एक दिन की आड़ में केवल एक समय ही किया जाएगा। सम्माननीय नागरिकों को होने वाली असुविधा के लिए हमें खेद है।‘‘
ऐलान सुनकर मित्र भड़क उठे। कसमसाकर बोले:‘‘ ये देखो मक्कारी राग....चुनाव नजदीक है ...शहर का बिजली और पानी के लिए तरसाकर नेताओं के महलों तक जाने के लिए सड़कों और नालियों का काम जोर और शोर से कर रहे हैं... सारा पानी वहां झोंक रहे हैं ....कांक्रीट की सड़कें और नालियां बनाने में ...और नागरिको को उल्लू समझते हुए खेद व्यक्त कर रहे हैं...‘‘
‘‘ नई.. लेकिन मौसम विभाग ने भी तो अकाल और सूखा की भयानक संभावना व्यक्त की है...‘‘
‘‘ कब व्यक्त की है ? अब जब पानी नहीं गिर रहा है.... पहले क्यों नहीं की जब पानी को सुरक्षित किया जा सकता था और उसके लिए योजनाएं बनाई जा सकती थी... सड़कों के लिए अनुमति रोकी जा सकती थी... बेवकूफ समझते हैं जनता को ?... ये सब साले सरकारी खटराग हैं... इनमें सिर्फ झूठ और फरेब के बादल घिरते हैं और हरे भरे जंगल धू धू करते हैं...‘‘
मैं समझ गया कि मित्र के दिल में जो तांडव-राग मचल रहा है वह मेरे किए शांत नहीं होगा । इसलिए मौका मिलते ही मैंने कहा: ‘‘ आज तो बहुत देर घूम लिए ..घर में लोग चिंता कर रहे होंगे...चलें ?‘‘ और मित्र के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मैं घर की ओर चल पड़ा।


27.06.09

2 comments:

  1. अच्छा व्यंग्य।
    गीत भी बेहतर हैं आपके।

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  2. जी धन्यवाद ! समय को हक़ है नज़र रखे....

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