Friday, March 12, 2010

चूहों की प्रयोगशाला

( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक )

मेरे प्रिय बालसखा ,
बचपन के दोस्त ,
चींचीं !
कैसे हो ?
तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है।
टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न!
तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छपी थी और हम लोगों को पाठ्यक्रम में लगाकर बचपन में पढ़ाई जाती थी। उसी किताब से पता चला कि मेरी नई की नई तीनों रंगीन शर्टस जो अचानक गायब हो गई थीं वो तुमने चुराई थी और मुहल्ले के टेलर से उसकी कमीज और पतल्ून सिलवाई थी। यार ! तुम तब मुझे दुनिया के सबसे गंदे आदमी लगे थे। हां हां मुझे याद है , आदमी कहने से तुम्हें बुरा लगता है। मगर यार यहां आदमी तो किसी को भी कह दिया जाता है। अपराधी भी आदमी है और न्यायाधीश भी। नेता भी आदमी है और अभिनेता भी। सिर्फ सरदार को आदमी कहने से लोग हंसते हैं। दुनिया का चलन है। अपने मज़े के लिए लोग दूसरों को ऐसे ही टोपी पहनाते रहते हैं।
अरे हां , टोपी से याद आया। मेरी कमीजों को कुतर कर तुमने दर्जी से एक रंगीन टोपी सिलवाई थी। उस रंगीन टोपी को पहनकर तुम कितने इतराते फिरे थे। तुम बार बार मेरे सामने से गुजरते थे और मैं अपनी गुम हुई कमीजों को भूलकर तुम्हारी टोपी की तारीफें किए जा रहा था। तुम मज़े से हंस रहे थे। जैसा कि अमूमन हमारे देश में होता है कि जनता का पेट खंरोचकर लोगों के कुर्ते और टोपियों में कलफ का कड़कपन आता है और जनता अपना पेट का दर्द भूलकर उनकी बतकही का आनंद लेती रहती है। वो तो जब उनके कारनामे अखबारों में आते हैं तब जनता को समझ में आता है कि अरे ये तो उनकी ही खाल की खादी थी। खाल की खादी , एक बार फिर अच्छी तुक बन गई न ?
खैर छोड़ो। उस टोपी का क्या हुआ ? उसे किसे पहना दी प्यारे ? इधर टोपी पहनाने का बड़ा फैशन जैसा चल पड़ा है। राजनीतिक पाटियों की अलग अलग टोपियां हैं। लगता है ,राजनीति में टोपियां तुम्हारे ही इन्सपिरेशन से आई हैं।
धत् तेरे की!! चीचीं यार , इन्सपिरेशन से याद आया कि मैंने आज तुम्हंे इसी बात पर बधाई देने के लिए पत्र लिखना शुरू किया था और आदतन भटक गया।
कल अखबार में पढ़ा कि तुम पर एक नया प्रयोग होने वाला है। इधर कृत्रिम दिमाग बनाने का फितूर ,हमेशा कुछ न कुछ कृत्रिम बनानेवाले कृत्रिमता विशेषज्ञ वैज्ञानिकों के फितूरी दिमाग पर चढ़ बैठा है। अब वे पूरी तरह कृत्रिम हो चके आदमी के अंदर एक कृत्रिम बनाकर उसे पूरी तरह कृत्रिम बना देंगे। तुम तो जानते ही हो कि केवल आदमी ही वह प्राणी है जो अपने को बड़े फ़क्ऱ के साथ कृत्रिम कहलाना पसंद करता है। नही समझे ? क्यों वह अपने को कृत्रिम ईश्वर यानी ईश्वर का प्रतिनिधि और अवतार वगैरह नहीं कहता फिरता।
मैं फिर भटक गया। मैं बता रहा था कि कृत्रिम दिमाग बनेगा। आदमी का अब तक लगभग हर अंग कृत्रिम रूप से बनाया जा चुका है । नकली हाथ , पैर ,गुर्दा ,दिल। प्लास्टिक सर्जरी से नकली मंुह, नाक , कान। और भी दूसरे मनोरंजन प्रधान अंग। नकली बालों की विग। नकली आंख। ये सारी खुराफात जिस दिमाग की थी अब खुराफाती आदमी उस दिल को भी बनाएगा। आदमी मतलब वैज्ञानिक। वैाानिक भी अभी तक आदमी होते हैं। केवल डाक्टर ही आदमी नहीं होते। वे बहुरूपिये हैं। कहीं कहीं भगवान होते हैं कहीं शैतान और कहीं कहीं तो साक्षात यमराज होते हैं।
तो बात वैज्ञानिकों की चल रही थी। वे अब दिमाग बनाएंगे। कृत्रिम दिमाग। इसका उपयोग चिकित्सा उद्योग में मानवीय उपचार के लिए किया जाएगा। इसमा मतलब यह है कि साइडइफेक्टवाली दवाओं से ऊबकर या घबराकर चिकित्सा माफिया अब मनोविज्ञानके के पांव पर गिर पड़ा है। इसके पहले वह स्रगीत चिकित्सा की शरण में गया जो कि एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा ही है। दुनिया में सभी प्रकार के धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में सदियों से मनोविज्ञान की इसी ब्रेनवाशिंग टेकनिक से सफलतापूर्वक काम चल रहा है। राजनीति और अपराध इंडस्ट्री मनोवज्ञिान के आधार पर चुनाव ,आतंक तथा लूटमार की दूकानदारी चला रहे हैं। सहायक उपकरणें में सहायता के नाम पर रुपये ,शराब,कम्बल , घड़ी आदि ऐन टाइम के लिए है। फुलटाइम और पार्टटाइम के लिए तो मनोविज्ञान ही काम करता है। पार्टी का मनोविज्ञान। पार्टी यानी मुर्गा। आदमी मतलब गुर्गा। इधर जो नवनिर्माण की बातें कर रहे हैं वे क्या कर रहे हैं ? वे क्या बनाने की बात कर रहे हैं। वे बना रहे हैं। अपने ही लोगों को बना रहे हैं।
खैर । दिमाग बन रहा है और पहला प्रयोग चींचीं चूहे! तुम पर ही होगा। मगर मुण्े हंसी आ रही है। ये आदमीनुमा वैज्ञानिक तुम्हें क्या बनाएंगे। तुम तो स्वयं विद्यावाहन हो।(विद्याबालन नहीं)। विद्याधिपति विनायक के वाहन। तफमहारी सवारी गणेश हैं। जैसे शरीर की सवारी मस्तिष्क। जब आलरेडी गणेश तुम पर सवार हैं तो तो कृत्रिम दिमाग कहां बैठाएंगे ये लोग ? तुम्हें ये क्या दिमाग देंगे। तुमसे तो मनुष्य दिमाग लिया करते हैं। मुझे याद है कि तुमसे दिमाग लेने का उल्लेख महाभारत में आया है। लाचागृह प्रसंग में एक चूहे की प्रेरणा से ही सुरंग बनी थी और पांडुपम्नी सहित पांचों पांडव सकुशल बाहर भाग निकले थे।
टाम एण्ड जैरी नामक जो लोकप्रिय कार्टून सीरियल है और जिसे देखदेखकर हमारे बच्चे बड़े होते हैं और बड़े होकर चूहे हो जाते हैं , उसमें एक बात अच्छी है कि रेटसन जैरी चालाक बिल्ले टाम से हमेशा जीतता है। उसकी दोस्ती आदमी के वफादार कुत्ते से हुआ करती है। यह सीरियल मुझे भी अच्छा लगता है और प्रेरणा देता है। प्रेरणा यह है कि कितना भी एक दूसरे को नीचा दिखाएं , टाम और जैरी हमेशा एक दूसरे को मिस करते हैं तथा आखिर में हमेशा एक दूसरे के मित्र हो जाते हैं। जेसे मेरी रंगीन शर्टस का ेचिन्दी ब करनेवाले दुष्ट चींचीं चूहे ! मै ंतुम्हें हमेशा मिस करता हूं।
यार सच कहूं चींचीं! कृत्रिम मस्तिष्क बनाने और तुम पर प्रयोग किए जाने की खबर से मै थोड़ा डर गया हूं। हालांकि वैज्ञानिकों का उद्देश्य गलत नहीं है। अवसाद ,उन्माद ,प्रमाद ,कुण्ठा ,विक्षिप्तिी आदि के मामले में कृत्रिम मस्तिष्क की भूमिका बहुत ज़ोरदार है। जेसे पेसमेकर वैसे ब्रेन केअरटेकर । मगर मानलो , लादेन , बाल-उद्धव-राज जैसों के हाथ में उसका फार्मेट या फार्मूला आ गया तो या नयी ब्रेन इंडस्ट्री ही उन्होंने खरीद ली तो क्या होगा। जैसे तुमने एक टोपी बनायी थी वैसी टोपियां बनाबनाकर ये अपने अनुयायियों को पहनाएंगे। फिर महाराष्ट्र ही क्या सारा राष्ट्र लहूलुहान हो जाएगा। केवल अमेरिका में ही भारतीय एजेन्सियों के ट्विनटावर नहीं गिरेंगे , भारतीय राजभवन को भी कोई नहीं बचा पाएगा। राजनीति इसका कितना उपयोग करेगी यह राजनीति जाने। यही सोचकर डर रहा हूं।
लेकिन फिर सोचता हूं कि ऐसा भी हो सकता है कि अच्छे लोगों के हाथों में यह दिमागी कारखाना आ जाए। ऐसा हो गया ता ेराजठाकरे जैसे लोगों को सकारात्मक नवनिर्माण के लिए ब्रेन ट्रांस्फार्मिंग के जरिए ठीक किया जा सकेगा। सारे आतंकवादियों को कसाब की तरह पकड़ा जाएगा , उनकी ब्रैनटांस्फार्मिंग की जाएगी और आतंकवाद खत्म हो जाएगा। अमेरिका और पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों को उपहारस्वरूप ब्रेन-पगड़ी पहनायी जाएगी और वे आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए करोड़ों का बारूदी और विनासकारी सौदा करने की बजाय अरबों का शांतिवादी सौदा करने लगेंगे।
प्रिय चींचीं चूहे! तुम मुझे चिढ़कर ‘आदमी कहीं का’ कहते थे। जैसे लड़कियां रुआंसी होकर लुच्चा कहीं का, या ज्यादा प्यार में हुईं तो कुत्ता कहीं का कहती हैं। आज मैं जब तुम्हें चूहा कह रहा हूं तो सम्मान से कह रहा हूं। यार अगर तुम न होते तो चिकित्सा के नाम पर होने वाले इन प्रयोगों का क्या होता? एक तरफ मैं आशंका से डर रहा हूं तो दूसरी तरफ यह भी सोच रहा हूं कि डरा ही क्यों जाए ? हमारे पास दिमाग है तो इसका उपयोग अवसाद से निपटने के लिए ओरिजनली क्यों न किया जाए। यानी प्रयोग होने दिया जाए। ज़रूरत पड़े तो मैं भी हाजिर हूं। हम शुभ की कल्पना करते रहें और अशुभ को घटने के लिए छोड़ दें। चूहे की मौत.....आई मीन आदमी की मौत मरने से बेहतर है शुभ संकल्पों के लिए अपने को उत्सर्ग कर दिया जाए। जो होगा अच्छा होगा।
तो मित्र चींचीं चूहे! मेरी शुभकामनाएं।
तुम्हारा-
‘आदमी कहीं का’

दिनांक: 5-6.03.10

Saturday, March 6, 2010

आख़िरी वक्त की खाक़’ मुसलमां !!

जनाब मक़बूल फ़िदा हुसैन साहब !
आदाब ।
आपको कतर की नागरिकता मुबारक। भारत में आप मक़बूल नहीं हो सके जिसकी माधुरी पर आप फ़िदा थे। लक्ष्मी और सरस्वती के कारण आपकी नौबत हसन हुसैन की हो गई थी। हालांकि हसन हुसैन की सफ़ाकत और आपकी शरारत में काफी अंतर है। वे शहादत के लिए जाने जाते हैं ओर और आप माशाअल्लाह विवाद पैदा करके अपनी पैन्टिंग का करोड़ों में व्यवसाय कर लेते हैं।
अब आप कतर पर फिदा हुए हैं। उम्मीद है वहा के लोगों ने आप को कुबूल कर लिया होगा। आपने अपनी आकबत के लिए सही जगह का चुनाव किया है। कतर आपकी उड़ान यानी परवाज को तरीक़े से कतरने की कूव्वत रखता है। बहुत हैरानी नहीं होगी अगर आपकी कूंचियां बुढ़ौती में भी ऐसी ही फिसलीं और जुलैखां और मुहम्मद की चित्रकारी में उलझ गई तो दुनिया की कोई नागरिकता आप को नहीं बचा पाएगी।
अगर आपने भारत से सीखा है कुछ और 94 साल की उम्र में कुछ जियारत वगैरह की फिक्र कर ली है तो हम दुआ करते हैं कि आपको भी नसरीन और सलमान के लिए जारी फतवों से न नवाजा जाए।
यह आप यहीं कर लेते । भारत बहुत उदार और सहनशील देश है। यहां सब कुछ पचाने की ताकत है। आपइ कहते हो कि 90 प्रतिशत जनता आपको प्यार करती है। फिर भी आप चले गए!
वैसे आपने परम्परा ही निभाई है। इस देश की 50-55 प्रतिशत जनता जिन्हें प्यार करती है वे भी आखिर विदेश ही जाते है।
विदेश जाना हो तो भारत की जनता का प्यार पा लो। विदेश यात्रा और स्विस बैंक में खाता खुलवाने का रास्ता अपने आप खुल जाता है। भारत में विवादस्प्रद पैन्टिंग बनाकर करोड़ों आपने भी कमाएं हैं दादा ! कहां और किस बैंक में है आपका खाता ?
लगता है कतर की सत्ता ने उसी खाते को अपनी मुद्राओं में बदलने के लिए आपको नागरिक बनाया है। या फिर आपने ही करोड़ों में अपनी नागरिकता का सौदा करके अपना बैंक बैलेन्स बढ़ाया है? क्योंकि चित्रकार आप चाहे जैसे हों , कमाल के कुशल व्यापारी तो आप हैं ही। बधाई।
आपको पता है ? आपके जाने से बेचारे बुढ़याते बाल यानी बालक साहब बहुत दुखी हैं। उनकी रोजी रोटी आप जैसे लोग ही चलाते हैं। आप जैसों को पत्थर मारकर वे अस्तित्व में आते हैं। आपका और उनका साथ चोली और दामन का था। वे चोली पहनकर नंगियाते हैं और आप दामन दिखाकर फनकार कहाते हैं। आपके दामन पर उनकी चोली फिट बैठती है। वे देवी देवताओं की पूजा करके घृणा फैलाते हैं। आप उन्हीं देवियों की घृणात्मक तस्वीरें बनाकर उनको मंच और कार्यक्रम प्रदान करते हैं।
इन दिनों वे शाहरुख के प्रेम में पागल हैं। यह बात आपके लिए खलनेवाली है। वे अमित के साथ पूरे उत्तप्रदेश और बिहार को पीटते रहे ,आपको कुछ न हुआ। आपका इन दोनों से कोई काम्पीटीशन नहीं था। मगर शाहरुख के साथ बालक साहब का यह इश्क़ ? आप समझ गए कि आपसे भी तगड़ा व्यक्ति अब ‘सरकार’ का दिल बहला रहा है। आपने कतर पर अपने को फिदा कर दिया। फिदा होना फना होने की तरफ बढ़ता क़दम है। आप कामयाब हों।
कामयाबी का सेहरा आप अपने पुराने दोस्त को भी क्यों नही पहनाते। उन्हें भी वहीं बुला लीजिए। हालांकि वे भारत में ही एक प्रदेश के नवनिर्माण में लगे हैं। देश के लोगों को चाहिए कि वोटिंग करा ले कि कौन उनके प्रदेश में बसना चाहता है। प्रदेश की जनसंख्या के हिसाब से वोट मिले तो सबको उतनी जगह में बसा दिया जाए और भारत से अलग कर दिया जाए। अलगाववादी तो हैं ही वे। वे भी खुश और भारत को भी चैन। अमेरिका उनको अस्त्र शस्त्र भी देगा और आतंकवाद का प्रशिक्षण भी। उनके शत्रु देश को अमेरिका दे ही रहा है। अगर दोस्त का दोस्त दोस्त तो शत्रु का शत्रु भी दोस्त होता है। बालक साहब शेष भारत के शत्रु हैं ,पाक भारत का शत्रु है। दोस्ती हो जाएगी। और इनको इस तरह अपना यह रूठा हुआ बूठा दोस्त मिल जाएगा।
ग़ालिब कहते थे कि आख़री वक़्त में क्या खाक मुसलमां होंगे। होंगे चचाजान! होंगे क्यों नहीं! क्या आप नहीं जानते कि बुजुर्गों ने कहा है - बंदर लाख बूढ़ा हो जाए , गुलाटी मारना नहीं छोड़ता।
हम देख ही रहे है कि कैसे कैसे बूढ़े बंदर कैसी कैसी गुलाटियां मार रहे हैं। बंदरों को इंसानों का पूर्वज बिना किसी तथ्य के थोड़े ही कह दिया गया है। वे लोग बड़े बुद्धिमान है जो ‘विद्यावान गुणी अति चातुर’ के भक्त हैं। इस तरह उनकी तोड़फोड़ और आगजनी सही है। मगर भाई अपने ही देश प्रदेश और अपने ही भवन में तोड़फोड़ और आगजनी क्या तफमहारे आराध्य का अपमान नहीं है। नहीं हम तुम्हारी श्रद्धा और भक्ति के बीच में नहीं आ रहे हैं। बस पूछ रहे हैं।
कहने को और भी बहुत कुछ है ,मगर जगह कम है और आप दोनों लोग समझदार ज्यादा हो।
थोड़ा लिखा अधिक समझना। जिस वतन में रह रहे हो उसे अपना समझना। खुदा हाफ़िज़। चूंकि उम्र उस जगह है ,जहां रात है ; इसलिए शब्बाख़ैर।


05.02.10 ,
बरोज़ जुम्मा।

Thursday, September 24, 2009

ऐसे बनी ग़ज़ल ऐसे गीत बने

प्रीत हुई तो दुख ने घेरा ,दोनों मीत बने ,
सचमुच ऐसे बनी गजल ऐसे ही गीत बने।

कब देखा करते हैं सपने , क्रूर-सत्य ,आघातें ,
कब पक्षी बाजों के भय से नभ पर ना उड़ पाते ,
कब खिलने से फूल कभी करते हैं आनाकानी
जितनी धूप दहकती जंगल उतने ही हरियाते।
घायल सांसें इस आशा से टूट नहीं पातीं
हारी हुई बाजियां शायद इक दिन जीत बनें।

Sunday, September 6, 2009

राष्ट्र-ऋषि नहीं कहलाएंगे शिक्षक


चाणक्य के देश में शिक्षक दुखी है ,अपमानित है और राजनीति का मोहरा है। वह पीर ,बावर्ची और खर है। खर यानी गधा। उस पर कुछ भी लाद दो वह चुपचाप चलता चला जाता है। आजादी के बाद से गरिमा ,मर्यादा और राष्ट्र-निर्माता के छù को ढोते-ढोते वह अपना चेहरा राजनीति के धुंधलके में कहीं खो चुका है। वह जान चुका है कि शिक्षकों के साथ राजनीति प्रतिशोध ले रही है। फिर कोई चाणक्य राजनीति के सिंहासन को अपनी मुट्ठी में न ले ले ,ऐसे प्रशानिक विधान बनाए जा रहे हैं।
आजादी के बाद इस देश में शिक्षकों को राष्ट्रपति बनाया गया। एक राजनैतिक चिंतक ने राष्ट्र को दार्शनिक-राजा द्वारा संचालित किये जाने की बात की थी। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जैसे प्रोफेसर को राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर बैठाकर भारत ने जैसे अपनी राजनैतिक पवित्रता प्रस्तुत की। राष्ट्रपति राधा कृष्णन् के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने से जैसे शिक्षकों और गुरुओं के प्रति राष्ट्र ने अपनी श्रद्धा समर्पित कर दी। लेकिन पंचायती राज्य ,जनभागीदारी और छात्र संघ चुनाव के माध्यम से शिक्षकों को उनकी स्थिति बता दी गई।
शिक्षक राजनीति की तरफ बहुतायत से गए हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी शिक्षक हुए है। भारत के मध्यप्रदेश में दर्शनशास्त्र में स्वर्णपदक प्राप्त मुख्यमंत्री पदस्थ हैं। शिक्षामंत्रालय में भी महाविद्यालयीन शिक्षिका मंत्राणी होकर आई हैं। शिक्षा क्षेत्र में नये-नये प्रयोग वे इन दिनों कर रही है। स्कूल शिक्षा और तकनीकी शिक्षा को भी वही संभाल रही हैं। वे शिक्षकों को देखकर शब्दों की भीगी ओढनियां हवा में उड़ाने लगती हैं कि छींटें शिक्षकों पर पड़ें और वे गदगद हो जाएं। मुख्यमंत्री भी लगातार अपने दार्शनिक स्वर्णपदक को रगड़ रगड़कर शब्दों के जिन्न पैदा कर रहे हैं। एक तरह से शब्दों का मायाजाल रचकर वे प्रदेश को नये स्वप्नलोक में पहुंचा रहे हंै। उनके मूल राजनैतिक दल में मंसूबों और नीयत के खतरे मंडरा रहे हैं। जलती हुई फुलझड़ी के तिनगों की तरह कद्दावर नेता टूटकर बिखर रहे रहे हंै और मुख्यमंत्री अपने दर्शनशास्त्र के तर्कवाक्यों से प्रदेश में नयी क्रांति का शब्दव्यूह रचे जा रहे है। शिक्षकों को लुभाने के लिए उन्होंने एक नया शब्दास्त्र फेंका है। शिक्षिका से मंत्राणी हुई उनकी सहयोगी ने शिक्षक दिवस पर शिक्ष्कांे और गुरुजियों को राष्ट्र-ऋषि की उपाधि से सम्मानित करने की घोषणा की है।
पूर्व मुख्यमंत्री ने अध्यापकों को शिक्षाकर्मी कहकर अपमानित किया था। फलस्वरूप वे निर्वाचन में अप्रत्याशित पराजय से पराभूत होकर आत्मनिर्वासन के महात्याग और संकल्पों की पैन्टिंग बनाने में लगे हैं। पराजित होकर देश की जनता को लुभाने का अंदाज कलयुगी है। कलयुग के प्रारंभ में दो दो राजकुमारों ने चरमोत्कर्ष के क्षणों में सत्ता का त्याग किया था। वह वास्तविक आत्मसाक्षात्कार का वीतराग था। सात्विक जनकल्याण का मार्ग था। उन्हीं सिद्धार्थ और वर्धमान के इस देश में भीषण नरसंहार के बाद आत्मग्लानि से बैरागी बननेवाले राजा अशोक भी दार्शनिक दृष्टांत हैं। दूसरी ओर शिक्षकों द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री ने अपने पहले दौर में उन्हें फिर अध्यापक बनाया और अब राष्ट्र-ऋषि कहकर वह उन्हें सर्वोच्च सम्मान देने का राजनैतिक भ्रम खड़ा कर रहे हैं। दूसरी ओर महाविद्यालयीन शिक्षकों को अभी तक छटवां वेतनमान यह दार्शनिक सरकार घोषित नहीं कर पायी है। देना तो दूर। जबकि केन्द्र सरकार की विश्वविद्यालय अनुदान आयोंग की सिफारिश पर केंन्द्र सरकार नया वेतनमान की अस्सी प्रतिशत अंशदान दे चुकी है। ऐसे दोहरी नीतियों के चलते राष्ट्रऋषि का खिताब शिक्षक कैसे स्वीकार करें ? शिक्षकों ने इस सम्मान को अपना अपमान माना है ,छल समझा है।
क्यों मान रहे हैं शिक्षक राष्ट्र-ऋषि के खिताब को अपना अपमान ? हमारे पूजनीय पुराणों में निरंकुश और दुराचारी राजाओं ने ऋषियों का सतत् अपमान किया। उनके आश्रमों पर हड्डियां और मांस फेंका। उन्हें पकड़कर मारा पीटा। क्यों ? क्योंकि शिक्षक धर्म और नैतिकता पर आधारित एक सामाजिक समाज का निर्माण चाहते थे। असामाजिक तत्वों को इससे खतरा था। आतंक और अत्याचार पर टिका हुआ उनका राज्य ध्वस्त होता था। उन्होंने ऋषियों को जिन्दा भी जलाया। शिक्षक कुराजाओं के राज्य में अपना हश्र देख चुके हैं। पुराणों और पुरखों की दुहाई देने वाले पुरोधाओं के पिछलग्गू राजाओं द्वारा अब कौन ऋषि कहलाना चाहेगा ? क्या ऋषि कहकर तुम भविष्य के तमाम अत्याचारों को विधिक स्वरूप देने की फिराक में हो ? यही पूछ रहा है शिक्षक।
अब सरकार सकते में है। वसिष्ठ से दुर्वासा हुए शिक्षकों को कैसे मनाए। राजनैतिक दांव का वह कौनसा पांसा फेंके कि शिक्षक चारोंखानों चित्त। शिक्षक दिवस को अभी दो दिन बाकी हैं।
ग़ालिब के शब्दों में -
थी हवा गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुरजे ,
देखने हम भी गए थे पै तमाशा न हुआ ।

मित्रों ! आप क्या सोचते हैं ? क्या होगा शिक्षक दिवस पर ? दार्शनिक सरकार शिक्षकों के दर्द को समझेगी या तमाशा होगा ? 03.09.09

Sunday, August 16, 2009

और अब ‘स्वाइन डे’: वाराह जयंती



ज्योतिषियों ने बताया है कि 23 को वराह जयंती है। हम पहले ही वराह से भयभीत हंै। भय से हमारी रक्षा करनेवाले मनोरंजन-उद्योग मुम्बई और पुणे में वराह महाराज ने जो आतंक फैला रखा है, वह क्या किसी से छुपा है ? पुराने लोगों के लिए बम्बई और पूना की याद दिलाने के लिए जैसे यम-मित्र भगवान वराह महाराज के दरबार में कोई सरोजखान की शिष्या माधुरी या ऐश्वर्या की तरह नाच गा रही हैं:‘‘बंबई से गई पूना ,पूना से गई दिल्ली, दिल्ली से गई पटना ; फिर भी ना मिला सजना ।’’ कौन है यार यह सजना ? मिलता क्यों नहीं इससे । तुम्हें ढूंढने के चक्कर में ये स्वाइन-गल्र्स पूरी दुनिया में आतंक मचा रही हैं। मिललो यार , इन्हें भी ठंडक मिले और हमें भी राहत।’’
मेरी समझ में एक चीज़ नहीं आ रही है कि आतंक हमेशा मुम्बई या पूना या दिल्ली या पटना या कलकत्ता को ही क्यों चुनता है। ताजमहल होटल ,संसद आदि से हम परिचित ही हैं। एक दुबली पत्ली लड़की ने कमर मटका कर कहा था ‘ काशी हीले पटना हीले कलकत्ता हील ला , हो लब्कै हमरी जब कमरिया सारी दुनिया हीले ला।’’ हुआ भी वही। ‘वलर््ड वाइड रियलिटी शो’ में उसी बरबटी छाप लड़की ने सचमुच दुनिया को हिला दिया।
मैं तो हिल गया हूं। 23 अगस्त को गणेश चतुर्थी भी है और वराह जयंती भी। एक है विघ्नहरण विनायक , दूसरा है मौत का ऐलान । अब इसका क्या मतलब है । क्या दोनों मित्र बन गए हैं। अमेरिका और पाकस्तान की मि़ता हमने देखी हैं। अब हम देखेंगे कि वराहरोग यानी स्वाइन फ्लू विघ्नविनायक से मिलकर अपनी आतंकवादी गतिविधियों का श्रीगणेश करेंगे। जैसा कि डाक्टर कभी डराते हैं तो कहते हैं ‘‘एडस है , हैपीटाइटस है, चिकुनगुनिया है ....जानलेवा बीमारी है। मुम्बई दिल्ली जैसी जगहों में इतने मर गए तो तुम किस खेत की मूली हो। डरो और हो सके तो डरकर मर जाओ। ’’ ये डाक्टर विघ्नहरण हैं मगर दुश्मनों की बोली बोल रहे हैं। चिकुनगनिया का मच्छर चोरी छुपे डंक मारता है ये खुले आम नश्तर चुभो रहे हैं। जब देखते हैं कम ही लोग मर रहें हैं और झूठे भय की पोल खुल रही है तो फिर झूठी तसल्ली भी देते हैं कि दवा खोज ली गई है। ऐसी तसल्ली हर महामारी की घोषणा के बाद दी जाती है और किसी कम्पनी की कोई दवा बाजार में ऊंचे दामों में बिकने लगती है। क्या करें इस देश की महामारियों का , डाक्टरों और दवाइयों का ? इनका कुछ नहीं हो सकता। हमारा ही कुछ हो सकता है । गायत्री ने ठीक कहा है कि हम सुधर जाएंगे तो संसार अपने आप सुधर जाएगा। तो चलें गणेशजी को मनाएं और वराह देव को भी। त्रत्राहिमाम त्राहिमाम रक्षमाम रक्षमाम पाहिमामा पाहिमाम कहकर। हाथ की लकीर में होगा तो अच्दे परिणाम आएंगे। यह भ्ससग्यवादी और कर्मवादी दोनों रास्ते एक साथ हैं। भागयवादी हाथ की लकीरों पर भरोसा करवाते हैं और कर्मवादी हाथ पर। चलिए गठबंधन के युग में हम गणेश महाराज को भी घ्यायें और शूकर देवता को भी। यही कूटनीति भी कहती है। इस दल में पिता तो उस दल में पुत्र। पंकज-पंक महामार्ग यही है मित्रों। घबराना बिल्कुल मत मैं हूं न। 160809

Friday, August 7, 2009

प्यार से मेरे ज़ख़्म भरते हैं


इश्क़ का आज इम्तेहां तो नहीं
हंसके कहता है कुछ हुआ तो नहीं

बावली आस पूछती सबसे
तुमसे कुछ कहके वो गया तो नहीं

प्यार से मेरे ज़ख़्म भरते हैं
दुखके-काटे की यह दवा तो नहीं

उसकी सूरत किसी ने कब देखी
हममें तुममें ही वो छुपा तो नहीं

सबकी आंखें मुझी पै ठहरी हैं
कौन हूं मैं उन्हें पता तो नहीं

जो किसी शख्स से नहीं मिलता
कहिए ‘ज़ाहिद’ वही खुदा तो नहीं

डॉ. रामार्य

1 दुख के मारे

Wednesday, August 5, 2009

मां



मां - 1

‘‘मम्मी मम्मी मम्मी’’
बजती है जैसे आरती में बांसुरी
जैसे एक लय में पीटे जा रहे हों
दिशाओं के ढोल

वह किचन और बेडरूम में नहीं थी
बाथरूम भी किसी टब सा खाली था
पिछवाड़े के आंगन से भी नहीं आ रही थी
कपड़े पछीटने की आवाजें
बच्चा उसे खाने की पतीली में खुरच रहा था
फर्स पर पैर रगड़ते हुए जैसे
उसे खोद रहा था हड़प्पा की तरह

ओह !
सामने के आंगन में फैली थी
खुली हुई धुली धूप सी मां!
कपड़े फैलाते हुए
तार के इस सिरे से उस सिरे तक
जासौन के फूलों से भरी हुई
डाली सी झूल रही थी मां


मां - 2

अभी अभी आंसू की तरह ढलकी है
मेरे गालों से मां की याद
आंखों के भरपूर दिन में जैसे
हुआ है काला सूर्यग्रहण
हथेलियां तुलसी के पत्तों की सी
अपने आप ढांप गई हैं मेरा चेहरा
लम्हों की बाढ़ में डुबकियां लेता मैं
गंगा नहा रहा हूं

मैं मां की तस्वीर को सीने से लगाए
बरसी मना रहा हूं


मां - 3

मैं उसकी थैली का बिल्कुल आखरी सिक्का
उसकी छाती पर आखरी बार उतरा हुआ दूध

मां बूढ़ी हो गई मुझे बड़ा करते करते
बड़े जो बहुत बड़े थे भाई मेरे
उनकी सैकड़ों समस्याओं में भी मां एक थी
और मैं रास्ते में उभरा हूआ एक पत्थर

उनके पैरों में अक्सर लग जाता था
मां ने मुझे उखड़ने और फेंकने से
न जाने कितनी बार बचाया
मगर मैं मां के कभी काम न आया
जब वह और बूढ़ी हुई तो
मैं बीमार पड़ गया
मां को पिता की पेंशन मिली
बूढ़ी बाड़ी में तुरई के बेल की तरह
वह मां की आंखरी सांस तक फली है

इधर भुगतकर देखा है मैंने अक्सर
अस्थमा के जानलेवा दौरों में
कि मुझसे दूर होकर भी
आकाश के कई नाम-धारी भ्रमों में खोकर भी
मृत मां !
मेरी छाती में सांसों की तरह चली है।
040809
नोट: ऊपर मां के चित्र पर मेरे बेटे ने 12 वीं कक्षा में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।