Saturday, June 6, 2009

सेंधमारी,तिजौरी और सुरक्षा के आदिम सवाल

एक समाचार पढ़ता हूं कि एक युवा विधवा रजिया ने अपने और अपनी बच्ची के सुरक्षित भविष्य के मद्देनज़र एक सजातीय युवक से निकाह या निबाह कर लिया। समय ने उसकी गूंगी बच्ची को इस लायक बना दिया कि जाने या अनजाने उसे उल्टियां होने लगे। रजिया की बेटी के साथ यही हुआ। मां को पता नहीं चला और हमेशा की तरह पड़ोसियों ने इस घटना को न केवल देखा बल्कि जैसा कि होता है वे इस उल्टी की तह तक गए। इशारे में खुद रजिया की गूंगी लड़की ने बताया कि वह जो बापनुमा सुरक्षाकवच उसकी मां ने अपने और उसके लिए पहना था ,वही उन उलटियों का जिम्मेदार है। कानूनन वह गिरफ़्तार कर लिया गया।
दूसरा समाचार ..... बारह साल बाद कानून ने उन चार आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया जिन्हें एक औरत की रपट पर बलात्कारी माना गया था और जेल में डाल दिया गया था। लगातार कानूनी लड़ाई लड़ते हुए अंततः चारों आरोपी यह सिद्ध करने में सफल हुए कि वह औरत जिस्मफरोश है और पुलिस ने उसे ढाल बनाकर उन चारों के खिलाफ़ जाल बिछाया था। पुलिस का काम सुरक्षित करना है, यह हमारा संविधान कहता है। मगर क्या वज़ह कि हमारा व्यावहारिक समाज पुलिस पर सुरक्षा के लिए निर्भर नहीं रहना चाहता ?
बहरहाल व्यापार ,खेल ,राजनीति से सनी हुई दुनिया के लिए इन दो बेहद तीसरे दर्जे़ के समाचारों ने मुझे अनायास फिर सोचने को मज़बूर कर दिया है। ये समाचार अनैतिकता और हमारी सुरक्षाव्यवस्था के प्रति न चाहते हुए भी कुछ अनुत्तरित सवालों के बेजान बिजूके खड़े करने की ज़िद करते हैं। जबकि हम सब अब जान चुके हैं कि दुनिया नैतिकता को बहुत ही बेकार का पास-टाइम और भटकाव मान चुकी है। बल्कि यों कहें कि नैतिकता की बात करनेवाले व्यक्ति अब या तो मानसिक रूप से अविकसित समझे जाने लगे हैं या उन्हें इस तरस के साथ देखा जाता है जैसे वे ’स्पेशल’ बच्चे हों और उन्हें इलाज़ की ज़रूरत हो। मेरे भुगतने में यह अनुभव आ चुका है। मैं एक प्रशासनिक अधिकारी के पास किसी काम से गया था। मेरे हाथ में उस वक़्त शोध के सिलसिले में संत-साहित्य से संबंधित पुस्तक थी। प्रशासनिक अधिकारी उस पुस्तक को देखकर तनाव में आ गए और बोले:‘‘ यह किस किसम की किताबंे आप पढ़ा करते हैं।‘‘ मैंने कह दिया कि मैं एक प्राध्यापक हूं और साहित्य में इस प्रकार की किताबें पढ़नी पड़ती हैं। इसे अपराध न समझा जाए। परन्तु मैं अंदर ही अंदर बुरी तरह चैंका था कि आखिर एक प्रशासनिक अधिकारी को संत साहित्य से क्या आपत्ति ! यानी व्यवस्था से जुड़ा व्यक्ति नीति से परहेज करता है! वह नैतिक रहने या बनने में असुरक्षा मससूस करता है ?
सुरक्षित जीने की चाहत उन्हें भी होती है जो अपनी ज़िन्दगी की सुखोपासना में दूसरों की ज़िन्दगी से खेलने के मज़े लेते हैं और दूसरों के लिए हमेशा असुरक्षा के ख़तरे पैदा करते रहते हैं। आत्मसुख के संसार मंे घूमते हुए अपने लिए मज़े की सेंध मारनेवाले ये चेहरे कोई भी हो सकते हैं। ज़रूरी नहीं है कि ये कोई अपरिचित हांे , विक्षिप्त हांे अथवा प्रतिशोध से भरा हुआ कोई नकारात्मक सोचवाला व्यक्ति हो। कतई ज़रूरी नहीं कि अनिवार्य रूप से वह कोई आदतन अपराधी या स्वाभाविक शत्रु हो। वह कौन होगा ? क्यों होगा ? और कब होगा ? इसका कोई पूर्व आकलन सामान्य तौर पर नहीं ही है। जब घटनाएं घटती हैं तब ये चेहरे सामने आते हैं। कई बार तो इन चेहरों को ढूंढने में इतना वक़्त लग जाता है कि इसी तर्ज़ पर कई और घटनाएं घट चुकती हंै। निघानी जैसे जघन्य और नृशंस कृत्यों की अनेक प्रतिलिपियां मासूम बच्चों के माता-पिताओं के जे़हन पर सैकड़ों सुनामियांे की शक्ल में मरोड़ें खा रही हैं। निघानी जैसे विकृत मानसिकताओं के व्यक्तियों के शरीरों को खत्म भी कर दिया जाए तो भी वह कृत्य रक्तबीजों की हजारों संततियों की शक्ल में फिर किसी और मासूमियत कोअपना शिकार बना लेती है। तो फिर हमारी कुलीन ,संभ्रांत और सभ्य राष्ट्रीयता के पास कानून पर विश्वास करने के सिवा और बचता ही क्या है? हां एक तथाकथित संयम है जो अंततः सारी घटना को एक घुलनशील नियति के रूप स्वीकार कर लेता है और निराशा एक शालीन नागरिक का जीवन जीने लगती है। ऐसा नागरिक यथासंभव संवेदनशील अभिव्यक्ति-जीवियों से कटने और टूटने लगता है। इसलिए प्रेमचंद जैसे लेखक को मरने के बाद भी क़फ़न कहानी की बुधिया की तरह अपने ही घीसू और माधो को तरसना पड़ता है।
इन बातों के पीछे मेरा कतई मकसद यह नहीं है कि हम नैतिकता का पुनर्मूल्यांकन करें या उसकी पुनसर््थापना के सवाल खड़े करें। मैं खुद इस बात से हैरान हूं कि इतने प्रगतिशील समाज में रहते हुए और विकास के इतने पड़ावों से देश को गुज़रे हुए देखकर भी मैं नैतिकता के खिलाफ़ घटी हुई घटनाओं से विचलित क्यों हो जाता हूं ? मैं अभी तक अभ्यस्त क्यों नहीं हो पाया हूं कि इन घटनाओं को नज़र अंदाज़ कर सकूं। दरअसल स्पष्ट रूप से मुझे अनैतिकता के प्रति लापरवाह होने की शिक्षा किसी ने नहीं दी। वात्स्यायन के कामसूत्र और रजनीश के समाधि-सूत्रों की लोकप्रियता के बावजूद मुुझे हमेशा यही लगता रहा है कि वेद, गीता, रामायण, और सैंकड़ों संतों के इस देश में कोई कैसे नीतिशास्त्र के विरुद्ध जा सकता है ? संबंधों की लक्ष्मण रेखाओं को लांघनेवाले जीव आते कहां से हैं ? या वह परिस्थितियां बनती क्यों हैं जब व्यक्ति इन्हंे लांघ जाए या लांघने के लिए मज़बूर हो जाए। हमने सुरक्षा के लिए आविष्कार की सैकड़ों लड़ाइयां लड़ी हैं। कमजोर मिट्टी की दीवारों में सेंध पड़ती थी तो हम कंक्रीट तक पहुंचे। दरवाज़ों पर तालों का ईजाद किया गया। टीन की पेटियां लोहे की मज़बूत तिज़ौरियों में तब्दील की गईं। पर लूट फिर भी जारी है। घर के नौकर, चैकीदार,निजी सुरक्षकर्मी...प्रणाम के बहाने झुका कोई नाथूराम या शुभ्रा.......हमारी सुरक्षा पर सवाल बन कर खड़े हैं। अंधेरे बंद कमरों में कभी कभी सुरक्षित होने का भ्रम होता है और उजालों में ट्विन-टावर से गुज़रते हुए विमान नाश्ते की मेज़ों पर आतंक परोस जाते हैं। क्या हमेशा विकास की शर्त सुरक्षाकवचों की सेंधमारी की इबारत से शुरू होती है ? अक्सर ऐसा क्यों होता है कि जो चीज़ें बदल नहीं सकती, उसी पर ज्यादा बहस होती है ओर जो हो सकता है उसे नज़र अंदाज किया जाता है। हम जिओ और जीने दो को संभव बना सकते है। जरूरत समाज की हर चीज़ को सुरक्षित करने की है। दि.050609
डाॅ. रा. रामकुमार

1 comment:

  1. मूल उत्सों तक पहुंचना होगा।

    ऐसा क्यूं है, कि सुरक्षा की जरूरत पैदा होती है?

    संपत्ति है, तो चोरी की संभावनाएं है, सुरक्षा की जरूरतें हैं।
    संपत्ति प्राप्त करने के लिए नैतिकता को तिलांजली पर रखने के मूल्य जब खून में बहने लगते हैं, तो यह हर मामले में स्थगित रहे यह संभावना तो रहेगी।

    आपका चिंतन अच्छी दिशा में है। ज्ञान असीम है।

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