Tuesday, May 12, 2009

चिकनी खाल के रसीले रहस्य

नींऊंड़ा ,नींमुड़ा ,नींबुड़ा:
चिकनी खाल के रसीले रहस्य

मेरे ख्याल से प्रातः-भ्रमण का स्वास्थ्य से चाहे जितना संबंध हो , मस्तिष्क से कहीं ज्यादा है। ताज़ा हवा में ताज़ा विचारों के साथ घूमते हुए ठंडी हवा कितना कुछ दे जाती है ,उसका पता सुबह-सुबह टहलकर घर लौटे हुए आदमी के चेहरे और उत्साह से चल जाता है।
मैं भी उस दिन अपने चेहरे पर उत्साह और विचारों का नये पतेवाला लिफ़ाफ़ा बनकर लौटा था। पत्नी बगिया में पानी दे रही थी । पत्नी को घेरकर मीठी-नीम , पोदीना ,मोंगरे , भटे , इकट्ठी दुृकट्ठी पत्तियोंवाला नगोड़ा नींबुड़ा यानी नीबू वगैरह खड़े थे। नीबू में भरपूर निंबोड़ियां झूल रही थी। ऐसे लग रह था जैसे पत्नी के माथे पर पसीने की चमकदार बूंदों से हंस-हंसकर कुछ बतिया रही हों। मैं कुतूहल के साथ बगिया में घुस गया और ठीक निंबुड़ियों की झूलती डाली के पास खड़ा हो गया । पत्नी ने चेतावनी दी:‘‘ सम्हलकर , नींबू में कांटे होते हैं।‘‘
मैं ठिठक गया। रसीली वनस्पतियों में कांटे ? मैं सोचने लगा कि और कौन कौन से फलदार पेड़ हैं जिनमें कांटे होते हैं! ऐसे फल जो मुझे पसंद है...और ऐसे फूल जो फूलों के राजा हैं.. और ऐसी सब्जियां जिनकी रोज रसोई पकती है और उन सबमें कांटे या कंटेदार रोयंे होते हैं। मुझे सोचता देख पत्नी ने टोका:‘‘ होने लगी कविता ,पकने लगा साहित्य.?’’
मैंने हंसकर कहा:‘‘ पकेगा जो भी ,तुम्हारे निंबुड़े के रस को निचोड़े बिना उनमें स्वाद तो आने से रहा ....लाओ दो एक निंबुड़ियां तोड़ लूं।’’
’’ नहीं ...अभी कच्ची हैं... रस नहीं पड़ा है.. ’’ पत्नी ने वर्जना की।
’’ तुम्हें कैसे पता कि रस नहीं हैं... आई मीन ..कैसे पता चलता है कि रस है या नहीं है ?’’ मैंने जिज्ञासा की।
पत्नी ने कहा:‘‘ नींबू की खाल देखो.. अभी खुरदुरी है... जब यह चिकनी होने लगे तो समझना चाहिए उसमें रस पड़ रहा है।’’
’’ अच्छा ! वनस्पतियां भी तभी रसीली होती हैं जब उनकी खाल चिकनी होती है ?’’ मेरे मुंह से निकल तो गया पर मैं सच कहता हूं यह अकस्मात् ,स्वभाववशात् हो गया था ,ऐसा कोई इरादा नहीं था । परन्तु पत्नी बिफर पड़ी:‘‘ सुबह सुबह तो दिमाग़ दुरुस्त रखा करो....कुछ भी कह जाते हो...जाओ चेंज करो , मैं चाय बनाकर लाती हूं।’’
मैंने सकपकाकर निंबुड़े की झूमती हुई डालियों को देखा और दिमाग में झूलते हुए विचारों को संभाले हुए कमरे में चला आया। यह भी अजीब संयोग था कि उसी दिन अखबार में पचपन-प्लस स्वप्नसंुदरी और चिरयौवना तारिका का संसदीय बयान छपा था:‘‘ मैं बिहार जाकर देखना चाहती हूं कि सड़कें मेरे गालों की तरह चिकनी हुई हैं या नहीं।’’
कहने की जरूरत नहीं है कि बुढ़ज्ञपे मंे भी ताज़गी की चमक से भरे ललिआए गालोंवाले एक भूतपूर्व बिहारी मुख्यमंत्री ने केन्द्रीयमंत्री के रूप में कभी कहा था कि वे बिहार की सड़को को स्वप्नसुंदरी के गालों की तरह चिकना बनाएंगे।’’ यह भी चिकनी परत वालों की रसीली चुटकी थी। तारिका सांसद का बयान भी रसीला था। पत्नी सही कहती है कि जब खाल चिकनी होती है तो उसमें रस पड़ने लगता है। दोनों राजनीति-जीवियों ने यह सिद्ध कर दिया है। हालांकि राजनीति कांटे बोने ,उगाने , बांटने और हटाने की जगह है , इसे सब जानते हैं। यह भी सबको पता है कि तारिकाओं के जीवन में पग-पगपर कांटे होते हैं। यही कांटें शायद उनके जीवन को रसीला बनाते हैं।
मनुष्य जिस प्रकृति का अंग वह प्रकृति अद्भुत है। कांटे हों या फूल...उनसे हमारे संघर्षों को बल मिलता है। इसीलिए हमारे आदर्शों में पुष्पवावटिका भी है और कंटीला वनवास भी। कांटेदार खट्टी मीठी बेरों से हमारे यहां आतिथ्य गौरवांवित होता है तो जंगली संजीवनी से पुनर्जीवन मिलता है। प्रकृति में बसंत भी होते हैं और पतझर भी। यह अद्भुत संयोग है कि बसंत में फूल खिलते हैं तो पेड़ नंगे हो जाते हैं।पत्ते झड़ जाते है। गर्मी जैसे जैसे तेज होती है तो पेड़ों पर भरपूर हरियाली छा जाती है। यानी कुदरत का कोई भी काम इकतरफा नहीं है....धूप है तो छांव भी है। कांटे हैं तो फूलों का राजा गुलाब भी है ,खुश्बू है। कांटे हैं तो नींबुड़ा में रस है ,चटखार है। इतना कुछ देने के बाद भी प्रकृति जीवंत कितनी है ? कांटे आते है तो खिली पड़ती है। फूलती है तो फलती भी है। विनम्र ऐसी कि फलने लगती है तो झुकी पड़ती है। जिन पेड़ों पर न फल हैं ,न फूल वे तने खड़े हैं। सागौन और सरई प्रशासनिक अधिकारी हैं ...उन्हें झुकाना जुर्म हैं ,उन्हें काटना जुूर्म। विलाश के मामलों में उनकी कटाई छंटाई सरकारी इजाजत के साथ की जा सकती है। फलदार वृक्ष तो आम आदमी है , जमीन से जुड़ा आदमी , सरल और सीधा आदमी... आम और अमरूद और सेव और संतरें और नीबू.... फले जा रहे हैं और झुके जा रहे हैं..... 2006 की एक ग़ज़ल का एक शेर ज़हन में उभरता है , जसे कुछ ऐसा है-
फलने लगता है तो झुक जाता है ,
पेड़ गर आदमी होता तो अकड़ जाता।
कुदरत और आदमी यहीं अलग हो जाते हैं। कुदरत झुकती है ,आदमी अकड़ता है। यूं तो आदमी प्रकृति का एक हिस्सा है। प्रकृति के अंदर आदमी है , आदमी के अंदर प्रकुति क्यों नहीं आती ?
नहीं नहीं ,आती तो है।प्रकृति कवियों के अंदर अनायास आती है। मेरे एक परिचित वयोवृद्ध कवि थे...स्व. केशव पांडे। धर्मयुग के कवि। इस्पात नगरी में एक कोमल आदमी... हंसी से भरा हुआ उनका चेहरा...। इस्पात भवन में हम प्रायः रोज मिलते थे। उन्हें हृदयाघात हो गया। पता नहीं जिनके हृदय कोमल होते हैं , प्रायः उन्हें हृदयाघात क्यों होता है ? केशव पांडे के कोमल हृदय में प्रकुति बसी हुई थी । एक दिन लंच में नीबू निचोड़ते हुए मुझे ऐ कविता सुनाई थी....
मित्र !
ये अफसर , ये नेता
हमें नीबू सा निचोड़ लेते हैं
दोपहर के भेजन में ।
मैं बस अवाक्। न आह भर सका ,न वाह कर सका। वे अनुभवी थे। कविता के प्रभाव को जानते थे । मुस्कुराकर बोले:‘‘ इसी में तो मजा है। मित्र , हम अपने को निचोड़कर अपना लंच स्वादिस्ट बनाते हैं ...चलो लंच करें।’’
तबसे मैं देख रहा हूं कि रोज प्रकृति कवियों के अंदर घुसती है और कविता के गवाक्षों से झांकती है। आलेखांे में प्रकृति अपनी द्वंद्वात्मकता , अपना द्वैतवाद उलीच रही है..संभावनाओं को भी , विडम्बनाओं को भी। गीतों में ग़ज़लों में दर्द कराह रहे हैं तो जिन्दगी गुनगुना रही है। कहानियों में करुणा रिस रही है तो आनंद भी झर रहा है।नगमों में नजाकतें इठला रही हैं तो रसीली चटपटी नींबुड़ियां झूम रही है।
नहीं , नींबू मेरे ज़हन से अभी उतरा नहीं है। उसका दिमाग मे चढ़ गया है और वह मेरे सर पर चढ़ गया है। नशा बनकर। जबकि यही सरचढ़ा नींबू कइयों के नशे उतार देता है। यही नींबुड़ा स्वाद को बढ़ाता है तो घमंड को और मद को उतार देता है। गर्मी चढ़ी हो तो नींबू का पानी उतार दे। यह नींबुड़ा जीरा और संेधा नमक के साथ गठबंधनकर सर पर चढ़कर बेहाल कर देने वाली गैस को मिनटों में उतार देता है।
उतारने को तो नींबू भूत भी उतारता है ,और दीठ भी ,नजर भी। सर पर चढ़ी भावों की देवी भी नींबू का उतारा मांगती है। नई खरीदी हुई गाड़ी के पहिए के नीचे नींबू को कुचल दो तो गाड़ी की बलाएं उतर जाती हैं। अपने अस्तित्व को , अपने को निचोड़कर केवल नींबू यानी प्यार में पुकारा गया नींबूड़ा दूसरों की बलाएं उतारता है। यही नहीं भव्य भवनों , दूकानों के सामने मिर्ची के साथ लटके हुए नींबू को देखो...कितने मजे से उनकी चैकसी में पैबस्त हैं ,तैनात हैं।
नींबू के कारनामों और करामातों की फेहरिस्त लम्बी है। वह स्वस्थों को स्वस्थ रखता है तो बीमारों को स्वस्थ करता है। खाली पेट सुबह-सुबह लेने से चर्बी गलने लगती है ,मोटापा छंटता है , रक्त-संसचार सुधरता है , रक्त-चाप सामान्य होता है।
कुलमिलाकर नींबू एक जीवित कविता है ,जिसमें रस है और ऊर्जा भी। नींबू के एक गिलास पानी से मैंने कविता को नहाकर बाहर निकलते देखा है। मेरे मित्र की पत्नी ने बिस्तर पर पड़े हुए पति को नींबू पानी का गिलास थमाते हुए ताना मारा था:‘‘ दिन चढ़े तक ऐसे पड़े हैं जैसे रात मे चढ़ाकर सोये हों।’’
मित्र ने इत्मीनान से नींबू-पानी पिया और पत्नी का हाथ पकड़कर यह शेर सुनाया:
दांव खेला ही नहीं है , तो चुकारा क्यों हो ?
रात जब पी ही नहीं है , तो उतारा क्यों हो ?

चाय पीकर मैं चुपचाप नींबू के पौधे के पास खड़ा हो गया हूं। मैं उसकी बलाएं उतार रहा हूं और अपने सर ले रहा हूं। मुझे याद है कि लगातार चार सालों तक नींबू पर न फूल खिले , न फल आए। तब किसी ने टोटका दिया था कि इतवार बुधवार नींबू के पास खड़े होकर घुड़को कि इस बंझेड़े को काट डालूंगा..क्योंकि यह फलता फूलता ही नहीं। ऐसा एक दो बार कहने से वह फलेगा भी और फूलेगा भी। मैंने इस टोटके को आजमाकर देखने में कोई बुराई नहीं समझी ,क्योंकि इसमें अपना फायदा था। सचमुच नींबू उस घुड़की के बाद फूला भी और देखो कैसे झमाझम फल रहा है। किंतु , किसी कार्यालय में काम अटका हो ,कोई कोशिश फलीभूत न हो रही हो और ऐसे धमकाओ कि काट डालूंगा अगर इस बार काम नहीं हुआ तो। क्या काम फलीभूत होगा ? उलटे मुसीबत खड़ी हो जाएगी। रासुका लगेगा सो अलग। यह तो नींबू है जिसे धमकाने का बुरा नहीं लगता। जरूरतमंदांे के दर्द को वह समझता है।
आखिर मैंने ग्लानि और कृतज्ञता से कांटों की परवाह किये बिना ,नींबू के फलदार वृक्ष की टहनी को चूमा और कहा:‘‘ झूठी मूठी धमकी को दिल से मत लगाना यार ,जब निचोड़ूं तो निचुड़ जाना ।’’

डाॅ. रामार्य

Thursday, May 7, 2009

जूतों की महायात्रा: शास्त्रयुग से शस्त्रयुग तक

रामायणकाल मे शास्त्र पोषित सम्राट् राम की कहानी में एक युगान्तर तब घटित हुआ जब अयोध्या के राजा भरत ने आग्रह किया था कि आपका अधिकार है आप राजा बनें। शास्त्रीय नैतिकता और मर्यादा को कठोर व्यावहारिकता में बदल देनेवाले राम ने नियति से प्राप्त वनवास को वरेण्य मानकर भरत का आग्रह अस्वीकृत कर दिया था। तब भरत ने राम कीह खड़ाऊ मांग ली और सर पर रख्कर लौट आए। राजसिंहासन पर उन खड़ाउओं को स्थापित कर वे पगतिनिधि राज्य की भांति राजकाज देखने लगे और कुटिया में कुशों के आसन पर पतस्वी जीवन बिजाने लगे। ऐसा आदर्श और कहीं दिखाई नहीं देता कि भाग्य से प्राप्त राज्य को गर्हित मानकर उसके पारंपरिक वास्तविक अधिकारी की वस्तु मानते हुए राजा तपस्वी हो जाए। आज तो राज्य और राज्य सिंहासन के लिए मारकाट ,छीना झपटी और षड़यंत्रों की बाढ़ सी आ गई है। हालांकि भारत के महाभारत-काल में इसका सूत्रपात हो गया था। कितना अंतर है - रामकाल की उन खड़ाउओं में और आज जो फेंकी जा रही हैं उनमें।
अध्यात्म के क्षेत्र में भी गुरु की खडाऊ का पूजन भारतीय मनीषा की अपनी मौलिक साधना है। हमारे देश मंे केवल शास्त्रों की ही पूजा नहीं होती , शस्त्रों की भी होती है और शास्त्रों के पिर्माणकत्र्ता गुरुओं की चरण पादुका उर्फ खड़ाऊ उर्फ जूतों की भी। संतों की परंपरा में तो जूते गांठनेवाले संत रविदास या रैदास का समादर भी इसी देश में संभव हुआ। इतना ही नहीं राजपूताने की महारानी मीरांबाई अपने राजसी वैभव को छोड़कर उनकी चरणरज लेकर संन्यासिनी हो गई।
दूसरी ओर अपने आराध्य और श्रद्धेय के जूते सरपर धारण करने वाले देश में दूसरों को जूतों की नोंक पर रखने के अहंकार-घोषणा यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई देती है। आज के घोषणापत्रों में अपने विचारों के अलावा दूसरों को जूता दिखाने की खुली गर्जनाएं गूंज रही हैं। अपने विकास कार्यक्रमों की बजाय देसरों के सत्यानाश की ललकारों पर उनको भविष्य दिखाई दे रहा है। श्रद्धा की चरणपादुकाएं ,खड़ाऊ या जूते आक्रोश , प्रतिहिंसा और कलुषित मनोविकारों में रूपायित हो गए। यह हमारी मानसिकता का विकास है या अधोपतन ?
इतिहास के पन्नों में संभवतः 2009 ‘जूता वर्ष’ के रूप में जाना जाए। विश्व की सबसे बड़ी ताकत के रूप में सर्वमान्य अमेरिका के निवृत्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश पर बगदाद के एक पत्रकार ने साम्राज्यवाद के विरोध में अपना जूता चलाया था। जूते या तो समाज और राजनीति में या घर और संसद में चलते रहे हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी राष्ट्राध्यक्ष पर चलनेवाला यह पहला जूता था।सारा विश्व सकते मंे आ गया। इसे आंतरिक अव्यवसथा और युद्धाक्रांत देश की , दमन के विरुद्ध अभिव्यक्ति कहा गया। ताकतवर बंदूकों के शिकंजे में दबे प्रचारतंत्र द्वारा ईजाइ किया गया सूचना और संचार का , मासकम्युनिकेशन का नया तरीका था , अपेक्षाकृत नया असत्र था। अब ‘ जूता ’ समर्थों के खिलाफ अपनी बात कहने का नया वैश्विक-उपकरण बन गया।
ऐसा नहीं है कि यह गुस्सा साम्राज्यवाद , विश्पूंजीवाद और मुद्राबाजार के एकमात्र अधिनायक राष्ट्र तक ही सीमित रहा। कुछ दिनों बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ पर भी उनकी आक्सफोर्ड यात्रा के दौरान फेंका गया।
सन 2009 भारत का चुनावी वर्ष भी है। दिल्ली सहित कुछ महŸवपूर्ण राज्यों की विधानसभा के चुनाव परिणामों ने लोकसभा के चुनावों को हड़बड़ा दिया है। शायद इसी का नतीजा था कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् पर चुनावी दौर की शुरुआत पर ही पत्रकार-वात्र्ता के दौरान एक पत्रकार ने जूता फेंका। वैश्विक संघटनाओं का यह भारतीयकरण था। भारत की यही विडम्बना है कि वह सर्वौत्तम का सृजन करता है और भौंडा , और वीभत्स का अनुकरण घटिया का अनुकरध करता है। पी. चिदम्बर पर फेंके गए पहले भारतीय जूते की गूंज दूर तक हुई। बुश पर जूता फेंकनेवाले बगदाददी पत्रकार का हश्र बुरा हुआ, जेल हुई। हमारी भारतीय परम्परा क्षमाशील है। ईसामसीह से हमने यह गुण लिया है। गृहमंत्री ने इसका पालन करते हुए भारतीय पत्रकार को क्षमा कर दिया और पत्रकार ने भी खेद व्यक्त करते हुए कहा: ‘‘ मेरा उद्देश्य नुकसान पहुंचाना नहीं ,ध्यानाकर्षण था। मैंने हीरो बनने के लिए यह नहीं किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किया। जबकि अकालीदल ने तो जूता फेंकनेवाले पत्रकार जरनैल सिंह को भगतसिंह की उपाधि दे दी।
फिर तो जैसे जूते चलने का मानसून ही आ गया। 8 अप्रेल गुहमंत्री पी. चिदम्बरम् पर हमला अभी हमला ताजा ही था कि 11 अप्रेल सांसद नवीन जिंदल पर एक रिटायर्ड शिक्षक ने जूता फेंका , 17 अप्रेल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित लालकृष्ण आडवानी पर पार्टाी काषर््कत्र्ता द्वारा खड़ाª फेंकी गई , 27 अप्रेल को भारत के वत्र्तमान प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह पर एक बेरोजगार कम्प्यूटर इंजीनियर ने चप्पल फेंकी ,28 अप्रेल को दोबारा आडवानी पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चप्पल फेंकी , और आज 29 अप्रेल को कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर एक युवक नेचप्पल फेंकी। इसी बीच सिने जगत के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र पर भी एक युवक ने चप्पल फेंकी। मजे की बात यह है कि इन सबसे बेपरवाह गुजरात के कलील शहर का नगरपालिका अध्यक्ष मुकेश परमार (भाजपा) अपने कार्यदिवस का काम निपटाकर अपनी पुश्तैनी चप्पल की दूकान पर नियमित मरम्मत और चप्पल निर्माण कर रहंे हैं। मूकेश परमार के दृष्टांत से हिन्दी उर्दू के प्रख्यात लोकप्रिय लेखक कृश्नचंदर की कहानी ‘ जूता ’ का बरबस स्मदण हो आता है. यह कहानी करीब 1965-70 के आसपास उनके कहानी संकलन ‘ जामुन का पेड़ ’ में संकलित थी. हंसी-हंसी में कृश्न चंदर मर्म पर चोट करने पर कभी नहीं चूकजे थे. ‘जूता’ कहानी के माध्यम से उन्होंने समाज की बेरोजगारी , डिग्री धारियों के मोहभंग , पैसों के पीछे भागने की समाज के प्रत्येक वर्ग की मूल्य विहीन लोलुपता पर उन्होंने तीखें कटाक्ष किए हैं. कहानी का प्रारंभ जामुन के पंड़ के नीचे बैठे एक मोची के जूते गांठने के दृष्य से होती है. बातों बातों में पता चलता है कि वह मोची पीछे खडत्रे आलीशान बंगले का मालिक था. उसने समाज के लोगों के चेहरों से पर्दा उठाने के लिए सौ जूते खानेवाले को दस हजार का ईनाम देने की घोषणा कर दी. तीन दिन तक समाज के हर वर्ग के लोग छुपते छुपाते आए और जूते खाकर चले गए. तीसरे दिन वह कंगाल हो गया और वही सामने मोची की दूकान खोल ली. आज अगर यह ईनाम रखा जाए तो घटनाएं बताता हैं कि दस हजार के बदले जूते खाने के लिए लोग अधिकार के साथ आएंगे. पैसा कमाने में शर्म कैसी ? खासकर उस वक्त जब जूते-चप्पल खाने में देश विदेेश मंें लोकप्रियता हासिल हो.
भारत जितना अद्भुत देश है ,उतनी अद्भुत उसकी विरासतें है। साहित्य भी अद्भुत है। आज भी जूते चप्पलॅे फेंकने की घटनाओं पर पत्रकार अगर अपनी बात कह रहे हैं तो चित्रकार अपने कार्टून बना रहे हैं , व्यंग्यकार इसे अपनी दृष्टि से देख रहे हैं तो प्ररूज्ञासनिक अधिकारी बतौर लेखक अपने दिशा निर्देश दे रहे हैं। जहां पी. चिदम्बरम् पर फेंके गए जूते पर पत्रकार गोकुल षर्मा ने उसे ‘लोकतंत्र की निराशा ‘ कहा तो आडवानी पर फेंके गए खड़ाऊ और के विषय में उन्होंने चेताया कि यह भाजपा को चेतावनी है कि कार्यकत्ताओं को नजर अंदाज न करें। आलोक पुराणिक ने ‘ जूता संहिता ‘ बनाने की व्यंग्यात्मक पहल की जा पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एम एन बुच ने आक्रोश को कानून की हदें पार न करने की तरबीयत की।
एक व्यंग्य चित्रकार हैं मंजुल । उन्होंने पहले भारतीय जूता कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ‘मास कम्युनिकेशन इंस्टीट्यूट ’ के छात्रों को जूता फेंकने के हुनर का अभ्यास करते हुए चित्रित किया। वहीं 25 अप्रेल को उनके कार्टून में एक नेता अपने जूतों के , अपनी पत्नी के जूतों के तथा अपने बच्चों के जूतों के नाप और नम्बर बता रहा है। हर जूता प्रकरण के बाद हमारे राजनेता निर्विकार भाव से अपनी बात जारी रखते है। यह अद्भुत समभाव राजनीति की देन है या गीता की ?
यह लेख जब तक लिखा जा रहा है ( 29 अप्रेल ) तब तक लगभग प्रतिदिन जूता किसी बड़े राजनेता पर चल रहा है।येदुरप्पा पर आज की तारीख खत्म हुई हैलेकिन यह अंत नहीं है। 2009 के समाप्त होते होते , चुनाव के बाद सरकार बनते तक और सरकार बनने के बाद संसद में अभी और न जाने कितने जूते चलेंगे कौन जानता है ? इन जूतों को कौन रोक सका है जो रोकेगा ?बस केवल विश्लेषण , लेख , टिप्पणियां ,व्यंग्य ,कार्टून और कविताओं का दौर चलेगा।
यह संयोग ही है केवल कि 2003 के अप्रेल माह में विदेशों की अकादमिक यात्रा से लौटे दो भारतीय विद्वानों ने जब ‘जूतों ’ को संबोधित मेरी कविता ‘ क्रियात्मक और सर्जनात्मक ’ कहा था तब मुझे कहां पता था कि 2009 के अप्रेल को हमें जूतों के इतने कारनामे सुनने पढ़ने को मिलेंगे और वर्ष 2009 ’ जूतों का अभिनंदन वर्ष ’ कहलाएगा ? 2003 की यह कविता जरा 2009 के अप्रेल में देखी जाए..
जूतों !
पहने जाते हो पैरों में,/मगर /हाथों में देखे जाते हो
जूतों ! /सच सच बताओ /यह जुगाड़ कैसे भिड़ाते हो ?
संसद की बदल जाती हैं /सांवैधानिक प्रक्रिया
चलती नहीं आचार संहिता -/जब तुम चलते हो
स्तब्ध है विराट प्रजातंत्र /और दिव्य भारतीय संस्कृति
नकृष्ट जूतों !
तुम कितने रूप बदलते हो !
आओ , तुम्हें सिर पर धारण करें .........

Wednesday, May 6, 2009

नशा था या प्यार था !

चढ़कर उतर गया वो नशा था या प्यार था !
हंसकर मुकर गया वो नशा था या प्यार था !

तन्हाइयों मंे भर रहा था , सैकड़ों उड़ान ,
मिलकर बिखर गया वो नशा था या प्यार था !

जो गुनगुना रहा था रगों की रबाब पर ,
छुपकर किधर गया वो नशा था या प्यार था !

मीठे थे पल खुमार के ,लेकिन खटास से ,
सारा असर गया वो नशा था या प्यार था !

सच्चाइयों की रेत से पानी गुरूर का ,
रुककर निथर गया वो नशा था या प्यार था !

‘ जाहिद‘ थी खुली बांह कि हर वक़्त का झौंका ,
सर रर सरर गया वो नशा था या प्यार था !
649/16-17 04 09



. माफ़ करना !

तुम्हारी हद के अंदर आ गया था ,माफ़ करना !
अकेलेपन से मैं घबरा गया था , माफ़ करना !

तुम्हारा नाम ही बस याद था सारे सफर में ,
शिनाख़त में उसे दोहरा गया था ,माफ़ करना !

मैं कच्ची उम्र की अमराई का बेनाम पत्थर ,
तुम्हारे हाथ बरबस आ गया था , माफ़ करना !

किसी तारीख़ कि रदफदो अमल की बात मत कर ,
था मुज़रिम वक्त जो पकड़ा गया था , माफ़ करना !

बिखरकर पंखुरी ही आंख में आंसू लिये बोली ,
सबा के साथ झौंका आ गया था , माफ़ करना !

किसी हमशक्ल, हम आवाज़, हमनाम के पीछे,
मैं ही बेसाख्ता दौड़ा गया था , माफ़ करना !

खड़े हैं और भी ‘ ज़ाहिद ‘ कतारों में उमीदों की ,
मैं शायद वक्त ज्यादा खा गया था , माफ करना !
020509/050509